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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध मधु, मद्य, सर्पि-घृत, खोल-मद्य के नीचे का कर्दम-कीच इन पुराने पदार्थों को ग्रहण न करे, कारण कि-इन में प्राणी जीव उत्पन्न होते हैं, जन्मते हैं, तथा वृद्धि को प्राप्त होते हैं और इन में प्राणियों का व्युत्क्रमण, परिणमन तथा विध्वंस नहीं होता, इसलिए मिलने पर भी उन पदार्थों को ग्रहण न करे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को कच्चा पत्र,(वृक्षादि का पत्ता), सचित्त पत्र या अर्द्धपक्व पत्र एवं शाक-भाजी आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए और सड़ी हुई खल एवं पुराना मद्य, मधु (शहद), घृत और मद्य के नीचे जमा हुआ कर्दम नहीं लेना चाहिए। क्योंकि ये पदार्थ बहुत दिनों के पुराने होने के कारण उनका रस विचलित हो जाता है और इस कारण उनमें त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए मुनि को ये पदार्थ ग्रहण नहीं करने चाहिएं।।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त मधु एवं घृत तो साधु के लिए कल्पनीय हैं। परन्तु , मद्य अकल्पनीय है, अतः मद्य शब्द कुछ विचारणीय है। क्योंकि सूत्र में कहा गया है कि पुराना मद्य एवं उसके नीचे जमा हुआ कर्दम (मैल) नहीं लेना, तो इसका अर्थ यह है कि नया मद्य लिया जा सकता है। किन्तु, आगमों में मद्य एवं मांस का सर्वथा निषेध किया गया है। अतः यहां इसका अर्थ है-मद्य के समान गुण वाला पदार्थ। यदि इसका तात्पर्य शराब से होता तो उसके अन्य भेदों का उल्लेख भी करते। क्योंकि सूत्र की यह एक पद्धति है कि जिस वस्तु का उल्लेख करते हैं, उसके सब भेदों का नाम गिना देते हैं। यहां मद्य शब्द के साथ अन्य नामों का उल्लेख नहीं होने से ऐसा लगता है कि मद्य का अर्थ होगा-उसके सदृश पदार्थ। आगम में युगलियों के अधिकार में दस प्रकार के कल्पवृक्षों में 'मातंग' कल्पवृक्ष का नाम आता है। उसके फल मद्य के समान मादक होते हैं। आजकल महुए के फलों को उसके समान समझ सकते हैं । इससे स्पष्ट है कि मद्य शब्द मदिरा का बोधक नहीं है। आगम में मदिरा का प्रबल शब्दों में निषेध किया गया है। इसके लिए दशवैकालिक सूत्र का ५वां अध्ययन द्रष्टव्य है। दशवैकालिक सूत्र प्रायः आचाराङ्ग का पद्यानुवाद है। इससे प्रस्तुत सूत्र का मदिरा सदृश पदार्थ अर्थ ही उपयुक्त प्रतीत होता है।
१ जीवाभिगम सूत्र। २ सुरं वा मेरगं वावि, अन्नं वा मज्जगं रसं।
ससक्खं न पिबे भिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो॥ पियए एगओ तेणो, न मे कोई विआणइ। तस्स पस्सह दोसाई, नियडिं च सुणेह मे॥ वड्ढइ सुंडिआ तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो। • अयसो अ अनिव्वाणं, सययं च असाहुआ। निच्चुट्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई। तारिसो मरणंते वि, न आराहेइ संवरं॥ आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसो। गिहत्था वि णं गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं॥ एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवज्जए। तारिसो मरणंतेवि,ण आराहेइ संवरं। तवं कुव्यइ मेहावी, पणीयं वजए रसं। मजप्पमायविरओ; तवस्सी अइउक्कसो.॥ -दशवकालिक सूत्र, ५, २, ३६, ४२।,