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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
ही दे दे। उस भिक्षु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ आदि शीतल या थोड़े उष्णजल से हस्तादि का एक अथवा अनेक बार प्रक्षालन करे और तदनन्तर अशनादि चतुर्विध आहार लाकर दे तो इस प्रकार के गीले हाथ आदि से लाए गए आहार को अप्रासुक जानकर साधु ग्रहण न करे । गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट हुआ साधु यदि यह जाने कि गृहस्थ ने साधु को भिक्षा देने के लिए हस्तादि का प्रक्षालन नहीं किया है किन्तु किसी दूसरे ही अनुष्ठान से काम से हस्त आदि जल से आर्द्र हो रहे हैं, ऐसे हाथों से या पात्र से (जो जल से आर्द्र अथवा स्निग्ध हों ) लाकर दिया गया भोजन भी अप्रासुक होने से साधु ग्रहण न करे ।
यदि गृहस्थ के हाथ या पात्र आदि जल से आर्द्र नहीं हैं, उनसे जल बिन्दु भी नहीं टपकते हैं किन्तु जल से स्निग्ध हैं- कुछ गीलें से हैं। तो भी उन हाथों से दिया गया अशनादिक चतुर्विध आहार अप्रासुक जान कर साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
इसी प्रकार सचित्त रज से, सचित्त जल से स्निग्ध हस्तादि, सचित्त मिट्टी, खारी मिट्टी, हरिताल, हिंगुल, सिंगरफ, मनसिल, अंजन, लवण, गेरु, पीली मिट्टी, खड़िया मिट्टी, तुवरिंका, पिष्ट- बिना छाना तन्दुल चूर्ण, कुक्कुस चूर्ण का छाणस और पीलु पर्णिका के आर्द्र पत्रों का चूर्ण इत्यादि से युक्त हस्तादि से दिए गए आहार को भी साधु ग्रहण न करे। परन्तु यदि उनके हाथ सचित्त जल, मिट्टी आदि से संसृष्ट युक्त नहीं है किन्तु जो पदार्थ देना है उसी पदार्थ से हस्तादि का स्पर्श हो रहा है तो ऐसे हाथों एवं बर्तन आदि से दिया गया आहार- पानी प्रासुक होने से साधु उसे ग्रहण कर सकता है।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि साधु गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होते समय यह देखे कि गृहपति या उसकी पत्नी या पुत्र या पुत्री या दास-दासी भोजन कर रहा है; तो वह उसे यदि वह गृहपति या उसका पुत्र है तो हे आयुष्मन् ! और यदि वह स्त्री है तो हे बहन !, भगिनि ! आदि सम्बोधन से सम्बोधित करके पूछे कि क्या तुम मुझे आहार दोगे या दोगी ? इस पर यदि वह व्यक्ति शीतल (सचित्त) जल से या स्वल्प - उष्ण (मिश्र) जल से अपने हाथ धोकर आहार देने का प्रयत्न करे, तो उसे ऐसा करते हुए देखकर कहे कि इस तरह सचित्त एवं मिश्र जल से हाथ धोकर आहार न दें, बिना हाथ धोए ही दे दें। इस पर भी वह न माने और उस जल से हाथ धोकर आहार दे तो उस आहार को अप्रासुक समझ कर साधु उसे ग्रहण न करे ।
यदि गृहस्थ ने साधु को आहार देने के लिए सचित्त जल से हाथ नहीं धोए हैं, परन्तु अपने कार्यवश उसने हाथ धोए हैं और अब वह उन गीले हाथों से या गीले पात्र से आहार दे रहा है तब भी साधु उस आहार को ग्रहण न करे। इसी तरह सचित्त रज, मिट्टी, खार आदि से हाथ या पात्र भरे हों तो भी उन हाथों या पात्र से साधु आहार ग्रहण न करे। यदि किसी व्यक्ति ने सचित्त जल से हाथ या पात्र नहीं धोए हैं और उसके हाथ या पात्र गीले भी नहीं हैं या अन्य सचित्त पदार्थों से संस्पृष्ट नहीं हैं, तो ऐसे प्रासुक एवं एषणीय आहार को साधु ग्रहण कर सकता है।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'उदउल्ले और ससिणिद्धे' शब्द में इतना ही अंतर है कि पानी से धोने के