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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक ६ ७५ आदि पक्षी या सूअर आदि पशु बैठे हों या अग्रपिंड के भक्षणार्थ कौवे आदि एकत्रित होकर बैठे हों तो अन्य रास्ते के होते हुए मुनि को उन्हें उल्लंघकर उस रास्ते से नहीं जाना चाहिए। क्योंकि मुनि को देखकर वे पशु-पक्षी भय के कारण इधर-उधर भाग जाएंगे या उड़ जाएंगे। इससे उन्हें प्राप्त होने वाले भोजन में अंतराय पड़ेगी और साधु के कारण उनके उड़ने या भागने से वायुकायिक जीवों एवं अन्य प्राणियों की अयत्ना (हिंसा) होगी। और कभी वे पशु जंगल में भाग गए और हिंस्र जन्तु की लपेट में आ गए तो उनका वध भी हो जाएगा। अतः साधु को जहां तक अन्य पथ हो तो ऐसे रास्ते से आहार आदि के लिए नहीं जाना चाहिए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि साधु का जीवन दया एवं रक्षा की भावना से कितना ओत-प्रोत होता है। यही साधुता का आदर्श है कि उसका जीवन प्रत्येक प्राणी के हित की भावना से भरा होता है। वह स्वयं कष्ट सह लेता है, परन्तु अन्य प्राणियों को कष्ट नहीं देता। - गृहस्थ के घर में प्रवेश करने के बाद साधु को वहां किस वृत्ति से खड़े होना चाहिए, इस सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- से भिक्खू वा २ जाव पविठेसमाणे नो गाहावइकुलस्स दुवारसाहं अवलंबिय २ चिट्ठिज्जा, नो गा दगच्छड्डणमत्तए चिट्ठिज्जा, नो गा. चंदणिउयए चिट्ठिज्जा, नो गा. सिणाणस्स वा वच्चस्स वा संलोए सपडिदुवारे चिट्ठिज्जा, नो आलोयं वा, थिग्गलं वा, संधिं वा, दगभवणं वा, बाहाओ पगिज्झिय २ अंगुलियाए वा उद्दिसिय २ उण्णमिय २ अवनमिय २ निज्झाइज्जा, नो गाहावई अंगुलियाए उद्दिसिय २ जाइज्जा, नो गा० अंगुलियाए चालिय २ जाइज्जा, नो गा० अं तज्जिय २ जाइज्जा, नो० गा० अं उक्खुलंपिय (उक्खलुंदिय) २ जाइज्जा, नो गाहावई वंदिय २ जाइज्जा, न वयणं फरुसं वइज्जा।३२। छाया- स भिक्षुर्वा यावत् न गृहपतिकुलस्य द्वारशाखाम् अबलंब्य तिष्ठेत् न गृहपति. उदकप्रतिष्ठापनमात्रके तिष्ठेत् न गृ० आचमनोदके तिष्ठेत् न गृ स्नानस्य वा वर्चस्य वा संलोके तत् प्रतिद्वारे तिष्ठेत् न आलोकस्थानं वा थिग्गलं वा सन्धिं वा उदकभवनं वा बाहून् प्रगृह्य २ अंगुल्योद्दिश्य वा उन्नम्य २ अवनम्य २ निध्यापयेत् न गृहपतिं अंगुल्योद्दिश्य २ याचेत् नो गृहपतिं अंगुल्या चालयित्वा याचेत् नो गृहपतिं अंगुल्या तर्जयित्वा याचेत् नो गृहपतिं अंगुल्या कंडूयित्वा याचेत् न गृहपतिं वंदित्वा याचेत्, न वचनं परुषं वदेत्। पदार्थ-से-वह। भिक्खू वा २- साधु अथवा साध्वी। जाव-यावत् भिक्षा के लिए प्रवेश करने पर। गाहावइकुलस्स-गृहस्थ के घर की। दुवारसाहं-द्वार शाखा को।अवलंबिय २-अवलम्बन करके-बारबार पकड़ कर। नो चिट्ठिज्जा-खड़ा न हो। गा०-गृहपति के घर। दगच्छड्डणमत्तए-जहां पर उपकरणों
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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