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________________ ७३ प्रथम अध्ययन, उद्देशक ५ बिना भिक्षा दिए ही वहां से हटा दे, तब मुनि उस घर में भिक्षार्थ जा सकता है और निर्दोष एवं एषणीय आहार आदि पदार्थ ग्रहण कर सकता है। अन्य मत के भिक्षुओं को उल्लंघकर जाने से गृहस्थ के मन में भी द्वेष-भाव आ सकता है कि यह कैसा साधु है, इसे इतना भी विवेक नहीं है कि पहले द्वार पर खड़े व्यक्ति को लांघ कर अन्दर आ गया है। उसके मन में यह भी आ सकता है कि क्या भिक्षा के लिए सभी भिक्षुओं को मेरा ही घर फालतू मिला है। और गृहस्थ भक्तिवश मुनि को देखकर उन्हें पहले आहार देने लगेगा तो इससे उन भिक्षुओं की वृत्ति में अंतराय पड़ेगी। और इस कारण वे गृहस्थ को पक्षपाती कह सकते हैं और साधु को भी बुरा-भला कह सकते हैं। अतः मुनि को ऐसे समय पर एकान्त स्थान में खड़े रहना चाहिए, किन्तु अन्य मत के भिक्षुओं एवं अन्य भिखारियों को उल्लंघ कर किसी भी गृहस्थ के घर में प्रविष्ट नहीं होना चाहिए ___यदि साधु के प्रवेश करने के पश्चात् कोई अन्य मत का भिक्षु या भिखारी आता हो तो उस साधु के लिए उस घर से आहार लेने का निषेध नहीं है। प्रस्तुत सूत्र से यह भी स्पष्ट होता है कि उस युग में सभी घरों में सब तरह के भिक्षुओं को दान देने की परम्परा नहीं थी। कई व्यक्ति भिक्षुओं को बिना कुछ दिए ही खाली हाथ लौटा देते थे। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझनी चाहिए। पञ्चम उद्देशक समाप्त॥
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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