________________
vi ]
सकारात्मक अहिंसा
नहीं, वैसे ही संसार के किसी भी जीव को दुःख प्रिय नहीं । अहिंसा के इस व्यापक आधार पर उन्होंने एक क्रान्तिकारी जीवन-पद्धति विकसित की जिसमें प्राणिमात्र के सुख की ठोस व्यवस्था थी, मात्र कल्पना नहीं । उन्होंने अहिंसा की विस्तृत परिभाषा में वह सभी कुछ समेट लिया, जो प्राणिमात्र के दुःख को मिटाने और सुख को प्राप्त करने का निमित्त बन सकता था । जब तक हम अहिंसा को इस व्यापक सन्दर्भ में नहीं समझते, तब तक प्रवृत्ति निवृत्ति की वितण्डा से मुक्त नहीं हो सकते ।
हिंसा अर्थात् हिंसा न करना अथवा हिंसा का अभाव | इसमें कहीं भी यह श्रर्थ छुपा हुआ नहीं है कि जीवन के परिपालन का प्रभाव हो । वस्तुतः इसमें तो जीवन के परिपालन का भाव अन्तर्निहित है । हम यदि किसी क्रिया-विशेष के निषेध को क्रिया मात्र का निषेध समझने लगें तो वह भ्रान्तिमूलक ही है ।
एक और बात है, निवृत्ति जन्म ही प्रवृत्ति से लेती है । प्रवृत्ति का अस्तित्व न हो तो निवृत्ति स्वतः ही अस्तित्वहीन हो जाती है । निषेध का अपने आप में कोई अर्थ नहीं, वह तो क्रियात्मकता से उत्पन्न होता है । प्रवृत्ति और निवृत्ति दिशा के नाम हैं, गति के नाम नहीं । और, जो चेतन अथवा जीवन, जिसका मूल गुण क्रिया है, स्पन्दन है, स्फुरण है, गति है वह कभी किसी स्थिति में गतिहीन नहीं हो सकता । उसकी निवृत्ति का अर्थ ही उसकी प्रवृत्ति की दिशा में परिवर्तन है, न कि प्रवृत्ति का अभाव ।
हिंसा के इसी सकारात्मक स्वरूप की पुनः स्थापना के प्रयासों में हमारे सुपरिचित चिन्तक श्री कन्हैयालाल जी लोढ़ा के विचारों का यह योगदान पुस्तकाकार रूप में हम अपने पाठकों के समक्ष उपस्थित कर रहे हैं । लोढ़ाजी ने अपनी परिचित शैली में शास्त्रीय आधारों के साथ आधुनिक प्रचलित सूचनाओं का समन्वय कर अहिंसा के उस लोक-कल्याणकारी पहलू को उजागर किया है, जो जैन आचार के एक अंग विशेष के प्रति विस्तार में छुप चला था । प्रश्नव्याकरणसूत्र में प्राप्त अहिंसा के 60 नामों का उल्लेख कर उसमें से कतिपय महत्त्वपूर्ण भावनाओं की विस्तृत चर्चा के माध्यम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org