________________
भूमिका
[ xli
निरपेक्ष या पूर्ण अहिंसा का पालन सम्भव नहीं है, उनकी यह अवधारणा उचित नहीं कही जा सकती है ।
निशीथचूर्णि में हिंसा के जिन अपवादों की चर्चा है उन्हें चाहे कुछ लोग साध्वाचार के रूप में सीधे मान्य न करना चाहते हों किन्तु क्या यह नपुंसकता नहीं होगी कि जब किसी मुनिसंघ के सामने किसी तरुणी साध्वी का अपहरण हो रहा हो या उस पर बलात्कार हो रहा हो और वे पूर्ण अहिंसा के परिपालन की दुहाई देकर द्रष्टा बने रहें ? क्या उनका कोई सामाजिक दायित्व नहीं है ? हिंसा-अहिंसा का प्रश्न निरा वैयक्तिक नहीं है। जब तक सम्पूर्ण मानव समाज एक साथ अहिंसा की साधना के लिए तत्पर नहीं होता है, किसी एक समाज या राष्ट्र द्वारा पूर्ण अहिंसा का उद्घोष कोई अर्थ नहीं रखता। अधिक क्या कहें, यदि सम्पूर्ण समाज षड्जीव- निकाय की नवकोटिपूर्ण अहिंसा के आदर्श के परिपालन की बात करने लगे तो क्या जैनमुनि संघ का भी कोई अस्तित्व रहेगा । अतः पूर्ण अहिंसा के आदर्श की दुहाई देकर अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की अवहेलना कथमपि उचित नहीं मानी जा सकती । संरक्षणात्मक व सुरक्षात्मक प्रयासों में जो हिंसा की बाह्य घटनायें होती हैं वे सामाजिक जीवन के लिए अपरिहार्य हैं ।
अहिंसा में अपवाद मानने वालों को सकारात्मक श्रहिंसा - निषेध का अधिकार नहीं
हिंसा और अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से तो आन्तरिक है । बाह्यरूप में हिंसा के होने पर भी राग-द्व ेष की वृत्तियों से ऊपर उठा श्रप्रमत्त मनुष्य प्रहिंसक है। जबकि बाह्यरूप में हिंसा न होने पर भी प्रमत्त मनुष्य हिंसक ही है । एक ओर सकारात्मक अहिंसा को केवल इसलिए अस्वीकार करना कि उसमें कहीं न कहीं हिंसा का तत्त्व होता है, किन्तु दूसरी ओर अपने अथवा अपने संघ और समाज के अस्तित्व के लिए अपवादों की सर्जना करना न्यायिक दृष्टि से संगत नहीं है । यदि हम यह स्वीकार करते हैं कि किसी मुनि के वैयक्तिक जीवन अथवा मुनि संघ के अस्तित्व के लिए अहिंसा के क्षेत्र में कुछ अपवाद मान्य किये जा सकते हैं तो हमें यह भी स्वीकार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org