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सकारात्मक अहिंसा
312 1 जोग पडिवण्णे य ण
अणंत धाड़ पज्जवे 3128 दिट्ठी संपण्णे 316 6 असम्मत दंसिणो 316 7,9 परक्कतं 316 8 सम्मत दंसिणो 317 29 पासव । 320 14 णियतणेवुत्ता
जोगपडिवण्णे य णं अणंतघाइपज्जवे दिदिसंपण्णे असम्मत्तदंसिणो परक्कंतं सम्मत्तदसिणो पासवं णियत्तणे वुत्ता
मैत्री-करुणा (1) मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्य
मानाविनयेषु 1-तत्त्वार्थसूत्र, 7.2 प्राणिमात्र के प्रति मैत्री भाव, गुणियों के प्रति प्रमोदभाव, दुःखियों के प्रति करुणाभाव और अविनीतों के प्रति माध्यस्थभाव रखना चाहिए। (2) सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ।।
-~-अमितगति हे देव ! मेरी आत्मा सदैव प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखे, गुणियों को देखकर प्रमुदित हो, दुःखी जीवों पर करुणित हो तथा विपरीत वृत्ति वाले व्यक्ति के प्रति मध्यस्थ रहे। (3) मैत्रीभाव जगत में मेरा सब जीवों पर नित्य रहे,
दीन दुःखी जीवों पर मेरे उर से करुणा-स्रोत बहे । दुजेन कर कूमागेरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे,
साम्यभाव रखू मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे ॥ (4) मित्ति भएसु कप्पए । -उत्तराध्ययन, 6.2
प्राणियों पर मंत्रीभाव रखो।
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