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________________ परिशिष्ट [ 343 अर्थ-इस जगत् में जीवरक्षा के अनुराग से मनुष्य कल्याणरूप पद को प्राप्त होता है । जिनेन्द्र, देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि ऐसा कोई भी कल्याणपद नहीं है जो दयावान नहीं पाते । (23) दानं सीलं च तवो भावो एवं चउविहो धम्मो। सव्व जिणेहिं भणिओ, तहा दुहा सुप्रचरितेहिं । -सप्ततिशतस्थानप्रकरण, गाथा 96 अर्थ-दान, शील, तप तथा भाव यह चार प्रकार का धर्म है। सर्व जिनेश्वरों ने इनका आचरण करने का उपदेश दिया है । (24) गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मः । -परमात्मप्रकाश टीका, 2.111 अर्थ-गृहस्थ के लिए आहार आदि का दान देना ही परम धर्म (25) न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्ग, न पुनर्भवम् । ___ कामये दुःखतप्तानां, प्राणिनामातिनाशनम् ।। अर्थ - रंति देव ने कहा--न मुझे राज्य चाहिये, न स्वर्ग चाहिये, न मोक्ष चाहिये । मैं एकमात्र प्राणियों की पीड़ा को दूर करने की भावना करता हूं। (26) असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं ॥ -आचार्य श्री नेमिचन्द्र अर्थ-अशुभ कार्यों से निवृत्ति और शुभ कार्यों में प्रवृत्ति ही चारित्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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