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सकारात्मक हिंसा
अर्थ - यहां धर्मात्मा सज्जनों को सबसे पहले प्राणियों के विषय में नित्य ही दया करनी चाहिये क्योंकि वह दया समीचीन व्रतसमूह, सुख एवं उत्कृष्ट सम्पदाओं की मुख्य जननी अर्थात् उत्पादक है । दया धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है, तथा प्रविनश्वरपद अर्थात् मोक्षमहल पर चढ़ने के लिये नसैनी का काम करती है । निर्दय पुरुष का नाम लेना भी निन्दाजनक है, उसके लिये सर्वत्र दिशायें शून्य जैसी हैं ।
( 10 ) जन्तुकृपादितमनसः समितिषु साधोः प्रवर्तमानस्य । प्राणेन्द्रिय- परिहारं संयममाहुर्महामुनयः ॥
- पद्मनन्दि पंचविंशति, 1.96 अर्थ - जिसका मन जीव-अनुकम्पा से भीग रहा है तथा जो ईर्ष्या, भाषा ( देखकर चलना, देखकर वस्तु को रखना, उठाना जिससे जीवों को बाधा न हो तथा हित- मित-वचन बोलना, कठोर वचन नहीं कहना) आदि पाँच समितियों में प्रवर्तमान है । ऐसे साधु के द्वारा षट्का (सर्व) जीवों की रक्षा और अपनी इन्द्रियों का दमन किया जाता है उसे गणधरदेवादि महामुनि संयम कहते हैं ।
( 11 ) येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते ।
चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्मः कुतो भवेत् ॥ मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम संपदाम् । गुणानां निधिरित्यङ्गिदया कार्या विवेकिभिः ॥ सर्वे जीवदयाधारा गुणास्तिष्ठन्ति मानुषे । सूत्रधारा: प्रसूनानां हाराणां च सरा इव ।।
- पद्मनन्दि पं. 6.37-39 अर्थ - जिन भगवान के दयालुतारूप अमृत से परिपूर्ण उपदेश से जिन श्रावकों के हृदय में प्राणिदया प्रकट नहीं होती है उनमें धर्म कहाँ से हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । इसका अभिप्राय यह है कि जिन गृहस्थों का हृदय जिनागम का अभ्यास करने के कारण दया से प्रोत-प्रोत हो चुका है वे ही गृहस्थ वास्तव में धर्मात्मा हैं । जिनका चित्त दया से प्रार्द्र नहीं हुआ है वे कभी भी धर्मात्मा नहीं हो सकते, कारण कि धर्म का मूल तो दया है ।
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