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________________ परिशिष्ट । 333 - जिनेश्वर ने हिंसक को करुणाहीन कहा है। (16) प्रायत्रो बहिया पास । -आचारांग, 1.3.2 अपने समान ही बाहर में दूसरों को देख । (17) ते प्रात्तो पासइ सव्वलोए। -सूत्रकृतांग, 1.12.15 ज्ञानी समग्र प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है । (18) अहिंसा तस-थावर-सव्वभूयखेमंकरी। -प्रश्नव्याकरण, 1.5 अहिंसा त्रस-स्थावर सब प्राणियों का कुशल करती है। (19) सव्वे जीवावि इच्छंति, जीविउं, न मरिज्जिउं -दशव 6.11 सभी प्राणी सुखपूर्वक जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता (20) जोउ परं कंपत्तं दठूण न कंपए कढिणभावो। एसो उ निरणुकंपो, अणु पच्छाभावजोएणं । -बृहत्कल्पभाष्य, 1320 जो कठोर हृदय दूसरों को पीड़ा से प्रकंपमान देखकर भी प्रकपित नहीं होता है वह निरनुकंप (अनुकंपाहीन) कहलाता है। चूंकि अनुकंपा का अर्थ ही है--कांपते हुए को देखकर कंपित होना। (21) जह मे इट्ठाणिठे सुहासुहे तह सव्वजीवाणं --आचारांगचूर्णि, 1.1.6 जैसे इष्ट-अनिष्ट, सुख-दुःख मुझे होते हैं वैसे ही सब जीवों को होते हैं। (22) भूतहितं ति अहिंसा । -नंदीचूर्णि, 5.38 प्राणियों का हित करना अहिंसा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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