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________________ भूमिका [ XXV हंसा के निषेधात्मक पक्ष की प्रमुखता के श्रागमिक श्राधार यह सत्य है कि श्रमण परम्परा ने और विशेष रूप से जैनधर्म ने अहिंसा के अर्थ-विस्तार को एक व्यापकता प्रदान की है । किन्तु इसके साथ यह भी सत्य है कि इस अहिंसा के अर्थ-विस्तार के साथ अनेक दार्शनिक समस्यायें भी उत्पन्न हुईं । अहिंसा के क्षेत्र का विस्तार करते हुए जब एक ओर यह मान लिया गया कि जीवन के किसी भी रूप को दुःख या पीड़ा देना अथवा उसके अहित और कल्याण का चिन्तन करना हिंसा है, साथ ही दूसरी ओर यह भी स्वीकार कर लिया गया कि न केवल मनुष्य-जगत्, पशु-जगत् और वनस्पति जगत् में जीवन है, अपितु पृथ्वी, जल, वायु आदि भी जीवन-युक्त हैं, तो यह समस्या उत्पन्न हुई कि जब जीवन के एक रूप के अस्तित्व के लिए उसके दूसरे रूपों का विनाश या हिंसा अपरिहार्य हो तो ऐसी स्थिति में चुनाव हिंसा और अहिंसा के बीच न करके दो हिंसा के बीच ही करना पड़ेगा । जिन चिन्तकों ने जीवन के सभी रूपों को समान मूल्य और महत्त्व का समझा, उन्हें अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की उपेक्षा करनी पड़ी। क्योंकि सकारात्मक अहिंसा अर्थात् सेवा, दान, परोपकार आदि की सभी क्रियाएँ प्रवृत्त्यात्मक हैं और प्रवृत्ति, जैन पारिभाषिक शब्दावली में योग, चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो उसमें कहीं न कहीं हिंसा / आस्रव का तत्त्व तो होता ही है। यदि हम प्रवृत्ति के पूर्ण निषेध को ही साधना का लक्ष्य मानें, तो ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से अहिंसा की अवधारणा निषेघमूलक होगी । ज्ञातव्य है कि उन सभी धर्मों के लिए जिन्होंने पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पति आदि में जीवन ही नहीं माना अथवा यह मान लिया कि जीवन के ये विविध रूप समान मूल्य या महत्त्व के नहीं हैं अथवा यह कि परमात्मा ने जीवन के इन दूसरे रूपों को मनुष्य के उपयोग के लिए ही बनाया है, उन्हें अहिंसा के सकारात्मक पक्ष को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं आई । समस्या केवल उनके लिए थी, जो जीवन के इन विविध रूपों को समान मूल्य या महत्त्व का मान रहे थे । W यह सत्य है कि जैन परम्परा में निवृत्ति और जीवन के विविध रूपों की समानता पर अधिक बल दिया गया और परिणामस्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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