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________________ भूमिका [ xxiii स्थूल दृष्टि है । लेकिन यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि जैनधर्म अहिंसा की इस स्थूल एवं बहिर्मुखी दृष्टि तक सीमित रही है । जैन-दर्शन का यह केन्द्रीय सिद्धान्त शाब्दिक दृष्टि से चाहे नकारात्मक है, लेकिन उसकी अनुभूति नकारात्मक नहीं है। उसकी अनुभूति सदैव ही विधायक रही है । अहिंसा सकारात्मक है इसका एक प्रमाण यह है कि जैनधर्म में अहिंसा के पर्यायवाची शब्द के रूप में 'अनुकम्पा' का प्रयोग हुआ है । 'अनुकम्पा' शब्द जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण शब्द है । उसमें सम्यक्त्व के एक अंग के रूप में भी अनुकम्पा का उल्लेख हुआ है । अनुकम्पा शब्द मूलतः दो शब्दों से मिलकर बना है -अनु+कम्पा (कम्पन) । अभिधानराजेन्द्रकोश में अनुकम्पा शब्द की व्याख्या में कहा गया है- 'अनुरूपं कम्पते चेष्टत इति अनुकम्पा' । वस्तुत: अनुकम्पा पर-पीड़ा का स्व-संवेदन है, दूसरों की पीड़ा या दुःख की समानानुभूति है । उसी में अनुकम्पा को स्पष्ट करते हुए यह भी कहा गया है कि पक्षपात अर्थात् रागभाव से रहित होकर दुःखी-प्राणियों की पीड़ा को, उनके दुःख को समाप्त करने की इच्छा ही अनुकम्पा है। यदि अहिंसा की अवधारणा के साथ अनुकम्पा जुड़ी हुई है तो फिर उसे मात्र निषेधपरक मानना एक भ्रान्ति है । अनुकम्पा में न केवल दूसरों की पीड़ा का स्व-संवेदन होता है, अपितु उसके निराकरण के सहज निःस्वार्थ प्रयत्न भी होते हैं । जब दूसरों की पीड़ा हमारी पीड़ा बन जाय तो यह असम्भव है कि उसके निराकरण का कोई प्रयत्न न हो। वस्तुतः जीवन में जब तक अनुकम्पा का उदय नहीं होता तब तक सम्यक्दर्शन भी सम्भव नहीं है । दूसरों की पीड़ा हमारी पीड़ा के समतुल्य तभी हो सकती है जब हम उसका स्व-संवेदन करें। वस्तुतः दूसरों की पीड़ा का स्व-संवेदन ही वह स्रोत है जहाँ से सम्यक्-दर्शन का प्रकटन होता है और सकारात्मक अहिंसा अर्थात् पर-पीड़ा के निराकरणार्थ सेवा की पावन गंगा प्रवाहित होती है। सर्वत्र आत्मभाव मूलक करुणा और मैत्री की विधायक अनुभूतियों से अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई है । वस्तुत: "अात्मवत् सर्वभूतेषु" की विवेक-दृष्टि एवं जीवन के विविध रूपों के प्रति संवेदनशीलता की भावना को जब हम अहिंसा का ताकिक आधार मानते हैं तो उसका अर्थ एक दूसरा रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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