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सकारात्मक अहिंसा धर्म है
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के विकास से जड़ता मिटती है जिससे वेदना के अनुभव की स्पष्टता बढ़ती जाती है । शुभभाव से समता पुष्ट होती है । फलतः असातावेदनीय का प्रभाव घटता है ।
पहले कह आये हैं कि शुभ भाव से दर्शनगुरण का, दर्शनगुरण से स्वसंवेदन का विकास होता है । संवेदनशक्ति के विकास से अर्थात् संवेदनशक्ति के सूक्ष्म होने से स्पर्शनइन्द्रिय, रसनाइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, श्रोत्र इन्द्रिय का विकास होता है व शरीर की क्रियाओं की संरचना होती है अर्थात् नाम कर्म से मात्र इन्द्रियों का सर्जन व निर्मारण होता है जबकि दर्शन गुरण से उनमें संवेदनशक्ति श्राती है ।
कषायों की विशुद्धि से 'पर' का महत्त्व व मूल्य घटता है और स्व का महत्त्व व मूल्य बढ़ता है जिससे उच्च गोत्र का अनुभव होता है । यह बोध होता है कि 'पर' के आधार पर अपना मूल्यांकन करने से मूल्य 'पर' का होता है और अपना मूल्य घट जाता है या नहीं रहता है जिससे हीन भावना होती है । पर के आधार पर अपना मूल्यांकन न करने पर प्रर्थात् मद के नष्ट होने पर प्रात्म तुष्टि होती है जो उच्चगोत्र की द्योतक है ।
यह सर्वविदित है कि भावों की विशुद्धि से शुभ आयु के अनुभाग का उत्कर्ष होता है । भावों की विशुद्धि रूप शुभभाव से दर्शन - गुणरूप स्व-संवेदन स्वभाव की अभिव्यक्ति होती है । संवेदनशीलता की वृद्धि से क्रूरता मिटकर करुणाभाव की जागृति होती है । करुणा का क्रियात्मक रूप सेवा या उदारता है । उदारता 'दान' की द्योतक है । श्रतः शुभभाव से औदार्य या दानगुरण का विकास होता है जो दानान्तराय कर्म की कमी ( क्षयोपशम ) का द्योतक है ।
शुभभाव से आई कषाय की कमी से कामना, ममता, अहंता, कर्त्तव्यभाव, भोक्तृत्वभाव में कमी श्राती है । कामना की कमी से, प्रभाव के अनुभव में कमी होती है जो लाभान्तराय के क्षयोपशम की द्योतक है । ममता की कमी से 'परभाव' में कमी आती है एवं 'स्वभाव' की अभिव्यक्ति होती है । जिससे निज रस की अभिवृद्धि
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