SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथ चरित का साहित्यिक मूल्यांकन २७९ अविविच्य क्रिया नैव श्रेयसे बलिनामपि । गजोऽपि निपतेत् गर्ते वृत्तस्तमसि चर्यया ॥८४॥ बिना सोचे समझे काम करने से बलशाली पुरुषों का भी कल्याण नहीं होता, देखिये ! अंधकार में चलने से हाथी गड्ढे में गिर पड़ता है । अशक्यवस्तुविषयः प्रत्यवायकृदुद्यमः । अंघ्रिणा क्रमतोऽप्यग्निमंघ्रिस्फोटः स्फुटायते ॥८५॥ ___ अशक्य पदार्थ के विषय में किया गया परिश्रम अवश्य मतिहत हो जाता है जैसे कि अग्नि को पैर से कुटने वाले पुरुष का पैर ही जलता है, अग्नि का कुछ नहीं बिगड़ता । स्वैरमन्यदतिक्रम्य प्रवर्तेताखिलं बली । कालक्रमोपपन्ना तु नियतिः केन लंध्यते ॥८६॥ बलवान् पुरुष दूसरे पदार्थों पर इच्छानुसार विजय पा सकता है लेकिन कालक्रम से प्राप्त हुए भाग्य को कौन टाल सकता है । कवि की भाषा-शैली, अभिव्यक्ति-कौशल्य, अलंकारयोजना आदि उल्लेखनीय है । इससे भी कवि-कौशल्य का परिचय मिलता है । भाषा में सहज प्रवाह और भावानुरूप परिवर्तित होने की क्षमता है । ओज, प्रसाद और माधुर्य तीनों गुणों का निदर्शन उसमें मिलता है । काव्य रचना के उपक्रम में कुछ अलंकार तो अपने आप आ जाते हैं । रसनिरूपण : शृंगार, वीर और शान्तरस का आलेखन यहाँ मुख्यतया हुआ है । छठे सर्ग में वीर और शृंगार का साथ साथ ही वर्णन है । युद्ध काल के वीरोचित प्रसंगों के आलेखन के बाद कवि ने योद्धाओं के साथ आयी हुई उनकी पत्नियों के साथ जो शृंगारक्रीडायें की थीं उनका मादक वर्णन यहाँ हुआ है । कवि ने प्रत्येक क्रीडाओं का और इस समय के स्त्रीयों के मनोभावों का सूक्ष्म और अलंकारों से तादृश निरूपण किया है और प्राकृतिक सादृश्यों की भी सहाय ली है । स्त्रियों के अंगोपांगों के चित्रण में भी शृंगार की झलक मिलती है। शांतरस का आलेखन अत्यधिक प्रसंगों में है। फिर भी दूसरे बारह सर्गों में पार्श्वनाथ भगवान् के चरित्र चित्रण के प्रसंग में सहज रीति से शांत रस का प्राकट्य होता है और तीर्थंकर भगवान् के प्रति भक्तिभावपत्र प्रकट करने में प्रेरणादायी बनता है । छन्द का आयोजन : महाकाव्य की शैली के अनुरूप प्रत्येक सर्ग. की रचना अलग-अलग छन्द में की है और सर्गान्त में विविध छन्दों की योजना की है। पहले, सातवें और ग्यारहवें सर्गों में अनुष्टुप् छन्द, शेष में दूसरे छन्दों का प्रयोग किया गया है। सप्तमसर्ग में व्यूहरचना के प्रसंग में मात्राच्युतक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy