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________________ २६२ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature चेतोविकासजनकः सर्वरसरचनात्मकः प्रसादः ।२६ __ अर्थात्, जल्दी से अर्थबोध होने के कारण चित्त का विकास करनेवाला एवं सभी रस तथा रचनाओं में रहनेवाला गुण प्रसाद है । यहाँ झगित्यर्थार्पण का जो विचार प्राप्त है वह कुन्तक७ के साथ साम्य रखता है जब कि चित्त के विस्तार का जनकरूप एवं सभी रस और रचनाओं में उस की उपस्थिति का स्वीकार आनंदवर्धन३८ के अ प्रसादगुण का उदा. वाग्भट ने 'पर्याप्तपुष्पस्तबक०.....'-इत्यादि दिया है । इस तरह दस गुणों का स्वरूप स्पष्ट करने के बाद वाग्भट वृत्ति में कहते हैं कि, इति दण्डिवामनवाग्भटादिप्रणीता दश काव्यगुणाः । वयं तु माधुर्योजःप्रसादलक्षणांस्त्रीनेव गुणान्मन्यामहे । शेषास्तेष्वेवान्तर्भवन्ति ।३९ ___ अर्थात्, दण्डी, वामन, वाग्भट (प्रथम) इत्यादि द्वारा निरूपित दस गुणों को वाग्भट द्वितीय अपने तरीके से स्वतन्त्ररूप से लक्षण देकर उसका स्वरूप स्पष्ट करते हैं किन्तु स्वयं तो केवल माधुर्य, ओजस्म एवं प्रसाद ये तीन ही गुणों का स्वीकार करते हैं । __ वाग्भट द्वितीय के अनुसार दस गुणों के स्वरूपविषयक जो चर्चा की गई है उससे स्पष्ट होता है कि, वाग्भट का निरूपण सर्वथा पूर्वाचार्यों के अनुरूप ही है । उसमें कान्ति, सौकुमार्य, श्लेष, अर्थव्यक्ति, समाधि, समता एवं औदार्य ये सात गुणों का स्वरूप उन्होंने दण्डी, वामन या वाग्भट प्रथम के उस उस गुण का स्वरूप ध्यान में रखते हुए किया है जब कि स्वयं को अभिमत तीन गुण-माधुर्य, ओजस् एवं प्रसाद के स्वरूपनिरूपण में उन्होंने दण्डी-वामन आदि का अनुसरण न करते हुए आनन्दवर्धन मम्मट हेमचन्द्र आदि द्वारा पुरस्कृत काश्मीरी परम्परा का ही अनुसरण किया है । माधुर्यादि तीन ही गुण मानने का आशय यह है कि, अन्य गुण इसी तीन गुणों में अंतर्भूत हो जाते हैं । वृत्ति में वाग्भट कहते हैं कि माधुर्य में कान्ति तथा सौकुमार्य, ओज में श्लेष, समाधि एवं उदारता तथा प्रसाद में अर्थव्यक्ति एवं समता गुण का अंतर्भाव हो जाता है । इसके समर्थन में वे नीचे की पङ्क्तियाँ उद्धृत करते हैंयदाह-'माधुर्योजः प्रसादाख्यास्त्रयस्ते न पुनर्दश । केचिदन्तर्भवन्त्येषु दोषत्यागात्परे श्रिताः ॥ अन्ये भजन्ति दोषत्वं कुत्रचिन्न ततो दश |॥'४० यह उद्धरण मम्मट के 'काव्यप्रकाश' से है । यहाँ पूर्वाचार्यों के दस गुणों में से कुछ गुणों का अंतर्भाव माधुर्यादि गुणों में होता हुआ बताया है तो कुछ को दोषाभावरूप माना है और कुछ गुणों को तो दोषरूप भी माना है अतः मम्मट को दस गुण स्वीकार्य नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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