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________________ निर्भयभीमव्यायोग का साहित्यिक अध्ययन प्रज्ञा जोगेश जोशी आचार्य हेमचन्द्र के प्रमुख शिष्य रामचन्द्रसूरि निर्भयभीमव्यायोग के रचयिता थे । सिद्धराज जयसिंह के समय में ही आचार्य हेमचन्द्र ने इन्हें अपना पट्टशिष्य एवं उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था । इनका जीवन विशेष रूप से अपने गुरु के साथ ही व्यतीत हुआ । रामचन्द्रसूरि की अद्भुत काव्य-प्रतिभा से प्रसन्न होकर सिद्धराज जयसिंह ने इन्हें "कविकटारमल्ल' की उपाधि से सम्मानित किया था ।२। रामचन्द्रसूरि के जीवन का अन्तिम काल बहुत ही दुःखमय रहा । वे अन्धे हो गए थे । इसलिए इनकी वृद्धावस्था में लिखे गए स्तोत्रों में दृष्टि-दान की प्रार्थना संगत प्रतीत होती है । रामचन्द्रसूरि की प्रतिभा का विकास गुजरात के राजा कुमारपाल के शासनकाल में हुआ । कुमारपाल के पश्चात् उनका उत्तराधिकारी अजयपाल हुआ जो जैन धर्म का विरोधी था । किसी विशिष्ट कारण से अजयपाल का रामचन्द्र से द्वेष था अतः प्रभुत्व पाने पर उसने इन्हें गर्म लोहे की चादर पर बैठा कर मरवा डाला | यह दर्घटना ११७३ ई० में घटी ।। सिद्धराज जयसिंह एवं कुमारपाल के समकालीन होने से रामचन्द्रसूरि का समय बारहवीं शती का मध्य भाग निश्चित है । रामचन्द्रसूरि ने अथक परिश्रम कर के संस्कृत भाषा को समृद्ध किया । इन्होंने स्वयं अपने को प्रबन्धशतकर्ता कहा है । किन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि उनके सब ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो सके हैं । अब तक इनके ३९ ग्रन्थों के नाम प्राप्त हो सके हैं । इनके ग्रन्थ तीन भागों में विभक्य किये जा सकते हैं । रूपक, काव्य तथा स्तोत्र और शास्त्र । इनके ११ रूपकों में से केवल नलविलास, सत्यहरिश्चन्द्रनाटक, कौमुदीमित्राणन्द, निर्भयभीमव्यायोग, रघुविलास एवं मल्लिका मकरन्द्रप्रकरणम् - ये छ: रूपक प्राप्त होते हैं । इनके काव्यों में से कुमारविहारशतक प्राप्त होता है । इस के अतिरिक्त इनके द्वारा प्रणीत २८ स्तोत्र हैं । इन स्तोत्रों में जैन तीर्थङ्करों की स्तुतियाँ हैं ।' रामचन्द्रसूरि ने अपने दो शास्त्रग्रन्थों में गुणचन्द्र को अपना सहयोगी बनाया है। ये दो ग्रन्थ हैं : द्रव्यालङ्कार तथा नाट्यदर्पण । हैमबृहद्वृत्तिविन्यास इनका तीसरा शास्त्रग्रन्थ है । इनकी साहित्यसेवा से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे प्रतिभाशाली जैन कवि, नाट्यरचयिता एवं नाट्यशास्त्र के अभिज्ञ विद्वान् थे ।। निर्भयभीमव्यायोग का प्रकाशन वाराणसी से वीर संवत् २४३७ में श्री यशोविजय जैन ग्रन्थमाला-११ के अन्तर्गत हुआ । इसमें १८ पृष्ठ तथा २७ श्लोक हैं । भीम द्वारा बकासुर के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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