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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
वाले पुराण की रचना की थी, उसके मात्र चार अन्तिम पर्व ही गुणभद्र के है, जिनमें कुल १६२० पद्य हैं । इस उत्तरपुराण में आदिनाथ ऋषभदेव सहित अन्य २३ तीर्थंकरों व अन्य शलाकापुरुषों के जीवनचरित सुविस्तृत वर्णित है । गुणभद्र ने भर्तृहरि के वैराग्यशतक की शैली पर आत्मानुशासन की रचना की थी तथा जिनदत्तचरित भी इन्हीं की रचना है। जबकि अजितप्रभसूरि और मल्लिषेणसूरि ने क्रमशः शान्तिनाथचरित एवं उदयनराजचरित की रचना की थी । संस्कृत और प्राकृत के अद्वितीय कवि मल्लिषेण की संस्कृत में छ: रचनाएँ प्रसिद्ध हैं । नागकुमारकाव्य भी इसी मल्लिषेण की रचना है। पप्पडगुरु के नाम से प्रसिद्ध आचार्य महासेनसूरि चारुकीर्ति के शिष्य एवं प्रद्युम्नचरितमहाकाव्य के प्रणेता है ।।
१३वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उत्पन्न भवदेव सूरि एवं माणिक्यचन्द्रसूरि दोनों ही आचार्यों ने तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चरित्र पर आधारित एक ही "पार्श्वनाथचरित" नामक महाकाव्य की रचना की थी, जिनमें माणिक्यचन्द्र का महाकाव्य अप्रकाशित है । भवदेव के महाकाव्य में जहाँ आठ बड़े बड़े सर्ग है, वहीं माणिक्यचन्द्रकृत महाकाव्य में १० सर्ग तथा ६७७० श्लोक है । जिनपाल का २४ सर्गों वाला "सनत्कुमारमहाकाव्य" भी अभीतक प्रकाश में नहीं आया है । आठ सर्गों में मल्लिनाथचरितमहाकाव्य की रचना करने वाले विनयचन्द्रसूरि, रविप्रभसूरि के शिष्य थे जो १३ वी० श० के उत्तरार्द्ध में स्थित थे । १२५७ ई० में राजगृह के राजकुमार अभयकुमार के चरित्र पर १२ सर्गों वाले महाकाव्य "अभयकुमारचरित" की रचना करने वाले चन्द्रतिलक को कुछ लोग बिहारनिवासी भी मानते है । मगधनरेश महाराज श्रेणिक के जीवन पर आधारित जिनप्रभसूरि का "श्रेणिकचरित महाकाव्य" का ही दूसरा नाम दुर्गवृत्तिद्वयाश्रय भी है, जो भट्टिकाव्य के समान ही काव्यसौष्ठव से कम और व्याकरणिक उलझनों से अधिक पूर्ण है । बीसवे तीर्थंकर सुव्रतमुनि के चरित पर लिखा गया अर्हद्दास का मुनिसुव्रतमहाकाव्य दश सर्गों का पौराणिक महाकाव्य है । इसमें अलंकारों का चमत्कार और काव्यगुणों का गुम्फन बड़ा ही मनोरम हुआ है । १६वीं० श० में मुगलसम्राट अकबर को जैनधर्मोपदेश करने वाले मुनि हीरविजय अथवा हरविजय अथवा हेमविजयसूरि ने २१ सर्गात्मक विजयप्रशस्ति काव्य का निर्माण किये थे और इसी महाकाव्य के आधार पर देवविमलगणि ने १७वीं श० में हीरसौभाग्य नामक महाकाव्य रचा था । दिगम्बर सम्प्रदायावलम्बी कवि राजमल्ल ने वि० सं० १६३२ (ई० १५७५) में आगरा में रहकर जम्बूस्वामिचरितमहाकाव्य की रचना सरल और सुबोध भाषा में की थी ।
धर्माभ्युदयकाव्य की रचना पुराणपद्धति पर हुई है, इसके कर्ता वस्तुपाल के धर्मगुरु आ० विजयसेनसूरि के पट्टधर आचार्य उदयप्रभसूरि (सं० १२९९) है । इसी काव्य का नामान्तर संघपतिचरित भी है । साथ ही इसमें वस्तुपाल की तीर्थयात्रायों का रोचक वर्णन हुआ है । १५ सर्गों के इस महाकाव्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके प्रत्येक सर्ग के अन्तिम पद्य में लक्ष्मीशब्द विद्यमान है।
संवत् १३५६ में (१३०० ए० डी०) जिनसिंह के शिष्य जिनप्रभसूरि ने गौतमस्तोत्र, पार्श्वनाथस्तव, श्रीवीरस्तव, पंचपरमेष्टिस्तव, शारदास्तोत्र आदि के साथ साथ व्याश्रयकाव्य,
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