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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
संदर्भ स्थल :१. क. विभा १०८६ : जं निच्छइया जुता, सुत्ते अत्था इमीए वक्खाया । तेणेयं निज्जुत्ती,
निज्जुत्तत्थाभिहाणाओ॥ ख. सूटी पृ० १ : योजनं युक्तिः अर्थघटना निश्चयेनाधिक्येन वा युक्तिः नियुक्ति:-सम्यगर्थप्रकटनम् । निर्युक्तानां
वा सूत्रेष्वेव परस्परसम्बद्धानामर्थानामाविर्भावनं युक्तशब्दलोपानियुक्तिः ।
आवमटी पृ० १०० : सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनं-संबंधनं नियुक्तिः । घ. ओनिटी पृ०४ : नि:आधिक्ये, योजनं युक्ति: सूत्रार्थयोर्योगो नित्यव्यवस्थित एवास्ते वाच्यवाचकतयेत्यर्थः,
अधिका योजना नियुक्तिरुच्यते, नियता निश्चिता वा योजनेति । २. आवहाटी पृ० ३६३ ।। ३. विभा १०८८ : तो सुत्तपरिवाडिच्चिय, इच्छावेइ तमणिच्छमाणं पि ।
निज्जुत्ते वि तदत्थे, वोत्तुं तदणुग्गहट्ठाए ।। ४. विभा १०८९ : फलयलिहियं पि मंखो, पढइ पभासइ तहा कराईहिं ।
दाएइ य पइवत्थु, सुहबोहत्थं तह इहं पि ।। ५. विभा १०९१ : इच्छह विभासिङ मे, सुयपरिवाडि न सुटु बुज्झामि ।
नातिमई वा सीसो, गुरुमिच्छावेइ वोत्तुं जे ॥ ६. आवनि ८४, ८५ : आवस्सगस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे । सूयगडे निज्जुत्ति, वुच्छामि तहा दसाणं च ॥
कप्पस्स यनिज्जुत्ति, ववहारस्सेव परमणिउणस्स । सूरियपण्णत्तीए, वुच्छं इसिभासियाणं च ॥ ७. आवहाटी १ ए० ४१ : ऋषिभाषितानां च देवेन्द्रस्तवादीनां नियुक्ति...... ८. दशनि २१८/४ : भावस्सुवगारित्ता, एत्थ दव्वेसणाएँ अहिगारो । तीए पुण अत्थजुत्ती, वत्तव्वा पिंडनिज्जुत्ती ॥ ९. आनिद्रोटी पृ० ३, ४ । १०. A history of canonical literature of the Jains p. 172 ११. गणधरवाद, प्रस्तावना पृ० १०; भद्रबाहु चाहें छठी शताब्दी में हए हों, किन्तु प्रश्न यह है कि उनकी लिखी
हुई नियुक्तियों में कोई प्राचीन भाग सम्मिलित है अथवा नहीं । श्री कुन्दकुन्द आदि के ग्रंथों में बहुत सी गाथाएँ नियुक्ति की हैं, भगवती आराधना और मूलाचार में भी हैं, अतः यह कैसे कहा जा सकता है कि उपलब्ध नियुक्ति की समस्त गाथाएँ केवल छठी शताब्दी में ही लिखी गई हैं । यदि पुरानी गाथाओं का समावेश कर नई कृति उपलब्ध रूप में उस समय बनी तो समग्र नियुक्ति को छठी शताब्दी की ही कैसे माना जाए ? इसमें संदेह नहीं कि हम यह निश्चय नहीं कर सकते कि पुरानी गाथाएँ कौन-कौन सी और कितनी है ? फिर भी नियुक्ति की व्याख्यान-पद्धति अत्यंत प्राचीन प्रतीत होती है । अनुयोगद्वार प्राचीन है, उसकी गाथाएँ भी नियुक्ति में हैं। अत: यदि छठी शताब्दी के भद्रबाह ने उपलब्ध रचना लिखी हो, तो भी
यह मानना पड़ता है कि प्राचीनता की परम्परा निराधार नहीं । १२. मूला गा० ६९१ : निज्जुत्ती निज्जुत्ती, एसा कहिदा मए समासेणं । अह वित्थारपसंगोऽणियोगदो होदि णादव्वो ॥ १३. सन्मति प्रकरण, प्रस्तावना पृ० ४८ । १४. गुरु गोपालदास वरैया स्मृति ग्रंथ पृ० ३८४ । १५. श्री जैन सत्य प्रकाश (मासिक पत्रिका), वर्ष ६, अंक १, क्रमांक ६१, पृ० ७ । १६. अ० डा० फूलचंदजी प्रेमी इस बात से सहमत नहीं है कि मूलाचार में आवश्यक नियुक्ति से गाथाएँ संगृहीत
की गयी हैं। उनका मानना है कि ये गाथाएँ दोनों ही परम्पराओं में इतनी प्रसिद्ध हो गयी थी कि
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