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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature कर दिया । अन्य नियुक्तियों की मंगलाचरण की गाथाएँ द्वितीय भद्रबाहु या उनके बाद के आचार्यों द्वारा जोड़ी गयी प्रतीत होती हैं । आचारांगनियुक्ति के मंगलाचरण की प्रथम गाथा चूर्णि में व्याख्यात नहीं है तथा टीकाकार शीलांक ने 'अणुयोगदायगे' का अर्थ चतुर्दश पूर्वधर नियुक्तिकार किया है । दशवैकालिक के मंगलाचरण की गाथा भी अगस्त्यसिंह और जिनदास द्वारा व्याख्यात नहीं है । इसके अतिरिक्त उत्तराध्ययन, निशीथ आदि नियुक्तियों में मंगलाचरण की गाथाएँ मिलती ही नहीं हैं । इन सब प्रमाणों से संभव लगता है कि मंगलाचरण की गाथाएँ द्वितीय भद्रबाहु की हैं और यह बहुत अधिक संभव है कि (वंदामि भद्दबाहुं) वाली गाथा पंचकल्पभाष्य से लेकर प्रसंगवश दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति में जोड दी गयी है क्योंकि छेद सूत्रों की अन्य तीन नियुक्तियाँ-निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प तो भाष्य में मिल गयीं किन्तु दशा श्रुतस्कंध की नियुक्ति स्वतंत्र रही । दशाश्रुतस्कंध के रचयिता स्वयं भद्रबाहु प्रथम थे अतः मंगलाचरण के रूप में गाथा लिपिकर्ताओं या बाद के आचार्यों द्वारा इस नियुक्ति में जोड दी गई है । पंचकल्पभाष्य में इस गाथा की प्रासंगिकता भी लगती है तथा इस गाथा की विस्तृत व्याख्या भी मिलती है । इस विषय में और भी अधिक गहन चिन्तन आवश्यक है ।
६. भद्रबाहु द्वितीय को नियुक्तिकार मानें तो वे मंगलाचरण के रूप में अवश्य किसी इष्ट की स्मृति या उन्हें वंदना करते क्योंकि विक्रम की तीसरी शताब्दी में मंगलाचरण की विधिवत् परम्परा प्रारम्भ हो गई थी । उमास्वाति ने जिस प्रकार 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' से तत्त्वार्थ सूत्र का प्रारम्भ किया वैसे ही भद्रबाहु प्रथम ने आवश्यकनियुक्ति में पंचज्ञान के वर्णन को ही मंगलाचरण के रूप में प्रस्तुत किया है । ग्रंथ के प्रारम्भ में मंगलाचरण के इस रूप को देखकर भी कहा जा सकता है कि यह भद्रबाहु प्रथम की रचना होनी चाहिए ।
७. ओघनियुक्ति के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में अर्हत्, चौदहपूर्वी, ग्यारह अंगों के धारक और सब साधुओं को वंदना की गयी है । गाथा की व्याख्या में टीकाकार द्रोणाचार्य ने एक प्रश्न उठाया है कि भद्रबाहु स्वामी चतुर्दशपूर्वी थे फिर उन्होंने अपने से न्यून दशपूर्वी आदि को वंदना क्यों की ? प्रश्न को समाहित करते हुए वे स्वयं कहते हैं कि दशपूर्वी आदि श्रुतपरम्परा की अव्यवच्छित्ति में योगभत बनते हैं अतः गणाधिक्य के कारण उन्हें नमस्कार करना दोषयुक्त नहीं है । पुनः टीकाकार ने प्रश्न उपस्थित किया कि ग्यारह अंगों के धारकों को नमस्कार क्यों किया गया है ? इसके समाधान में वे कहते हैं कि ओघनियुक्ति चरणकरणात्मक है । ग्यारह अंगों के धारक चरणकरण युक्त होते हैं क्योंकि अंग चरणकरणानुयोग के अंतर्गत हैं । उपयोगिता के कारण उनको नमस्कार करना उचित है । साधुओं को नमस्कार इसलिए किया गया है चूंकि वे चरणकरण के निष्पादक हैं ।२० सामान्य दृष्टि से भी यह बात असंभव नहीं लगती क्योंकि आज भी आचार्य, उपाध्याय नमस्कारमंत्र में अपने से छोटे पद (मुनि) को नमस्कार करते हैं । उपर्युक्त उद्धरण से यह तो स्पष्ट है कि द्रोणाचार्य के समय तक नियुक्ति के रचनाकार विवादास्पद हो गए थे । चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु को नियुक्तिकार न मानने की परम्परा भी थी । किन्तु टीकाकार द्रोणाचार्य ने अत्यंत विस्तार से इस मत का निराकरण करके भद्रबाह प्रथम को ही निर्यक्तिकार के रूप में स्थापित किया है ।।
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