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गुरु के सर्व प्रथम दर्शन
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हिला डुला नहीं सकते थे और अपना शरीर भी इधर उधर स्वयं नहीं कर सकते थे। जब जरूरत होती थी तो मैं, धनचन्द तथा उसकी बहिन मिलकर उनको आधे शरीर के बल बिठा दिया करते थे। खाने पीने के लिये उनको इस तरह बैठाया जाता था और मल मूत्र का विसर्जन भी इसी तरह कराया जाता था।
रूपाहेली से चित्तौड़ तक साथ में आने वाले दो महाजनों में से एक तो चित्तौड़ ही से वापिस रूपाहेली चला गया। दूसरा बानेण आया। वह महाजन गुरु महाराज का भक्त था और मेरी माँ की भी वह सार संभाल लिया करता था। इसलिये उस महाजन का मेरे प्रति भी बहुत ममत्व भाव था। कोई दो चार दिन वह महाजन बानेण रहा, फिर गुरु महाराज की आज्ञा लेकर रूपाहेली चला गया।
इधर कुछ दिन तो गुरु महाराज का स्वास्थ्य ठीक होता हुआ दिखाई दिया, परन्तु एक महिने के बाद उनकी जीवनी शक्ति धीरे धीरे क्षीण होती हई दिखाई दी। वे अपने विषय में कोई बात चीत नहीं किया करते थे । यदा कदा मुझे अपने पास बुलाकर मीठे शब्दों में कुछ बातें कहा करते थे। उनका भोजन भी धनचन्द जी की घर वाली स्त्री बनाया करती थी, परन्तु उनको खिलाने का तथा पानी पिलाने का तथा हाथ वगैरह धुलाने का काम में ही किया करता था।
रात को मैं उनके पास एक छोटी सी खाट पर सो जाया करता था और घर के दरवाजे के पास धनचन्द यति सो जाते थे । दिन में गांव के कुछ महाजन गुरु महाराज को देखने आदि आ जाया करते थे। इस प्रकार ग्रीष्म ऋतु के खत्म होने पर आषाढ़ के शुक्ल पक्ष में वर्षा का प्रारम्भ हुआ। पिछले साल सारे राजस्थान में भयंकर दुष्काल पड़ा था। जिसके कारण हजारों मनुष्य अन्न के अभाव में मर गये । आषाढ़ महिने में जब वर्षा होनी शुरू हुई तो लोगों के हर्ष का पार नहीं रहा । श्रावण महिने में भी अच्छी वर्षा हुई। इस वर्षा ऋतु के कारण गुरु महाराज की शारीरिक शक्ति पर गहरा प्रभाव पड़ा और अन्त में भाद्र
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