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जिनविजय जीवन-कथा
वे अपने पास बिछोने के नीचे रख लेते थे और फिर पेटी के ताला लगवाकर एक छोटे से बन्द कमरे में उसे रखवा देते थे।
जब उस दिन जाने की तैयारी हुई तो उस रुपये पैसे वाली पेटी को मंगवाकर दवाइयों वाला जो मझले कद का अच्छा मजबूत बक्स था उसके अन्दर उस पेटी को भी रखवा दिया और उसकी चाबी संभाल कर रखने के लिये मुझो दे दी। बक्सों के सिवाय कुछ रसोई आदि के बर्तन थे जो एक मजबूत बोरे में भर दिये गये। दो तीन बिस्तर आदि कपड़े के बींटे बांध लिये गये । दोपहर की बारह एक बजे तक यह सब तैयारी हो गई। मैं अपने घर से गुरु महाराज के लिये भोजन लेने गया, जिसको मां ने पहले ही अच्छी तरह तैयार कर रखा था। मां ने उस दिन थोड़ा सा हलवा बनाया था, जिसे उसने पहले अपने पास बिठाकर अपने हाथ से मुझो खिलाया। बाद में एक थाली ढककर मुझो उपाश्रय में ले जाने को कहा। मैंने गुरु महाराज के सम्मुख एक चौकी रखकर उसपर थाली रख दी। उन्होंने बड़ी भावना से कुछ पास खाये और मुझे पूछा कि तू मी खाकर पाया है न ? ___मैंने सिर हिलाते हुए अपनी सम्मति प्रकट की, पर मैं मुंह से कुछ बोल नहीं सका । वे मेरे सामने देखकर बोले-"बेटा, तेरी रोने जैसी . सूरत क्यों दिखाई दे रही है ?" - मैंने कहा-"महाराज आज सारी रात मेरी मां बहुत रोती रही। इससे मुझे रोना आ गया ।" . गुरु महाराज बोले- "बेटा मां का प्रेम ऐसा ही होता है । तू अभी तक मां से एक दिन भी कभी दूर नहीं रहा और आज मैं तुझे अपने साथ कुछ दिन के लिये ले जाना चाहता हूँ, इसलिये तेरी मां का हृदय भर आना स्वाभाविक है । मैं गुरु महाराज की वह थाली उठा कर वापिस अपने घर ले गया और गुरु महाराज ने जो कुछ मुझे कहा वह मैंने मां से कह सुनाया। यह सब सुनकर माँ फिर रोने लगी और मुझे छाती से लगा कर बहुत सहलाने लगी । यद्यपि मेरी उम्र उस समय १२,१३ वर्ष
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