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गुरु के सर्व प्रथम दर्शन
. ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी जिसको राजस्थान में निर्जला ग्यारस कहा करते हैं, उस दिन रूपाहेली से प्रस्थान करना निश्चित हुआ। साथ में रूपाहेली के दो ओसवाल महाजन जो उनके खास भक्तजनों में से थेबानेण पहुंचाने के लिये तत्पर हुए । चूकि इस सारी परिस्थिति में मैं गुरू महाराज की सेवा में सदा निकट रहता था और मुझ पर उनका बहुत प्रेम था इसलिये उन्होंने मुझे कहा – बेटा रिणमल ! तू भी मेरे साथ चल और तेरी माँ से रजा ले ले । मैंने जाकर माँ से कहा- "गुरु महाराज यहाँ से चित्तौड़ यात्रा के लिये जाना चाहते हैं और मुझे साथ ले जाना चाहते हैं । इसलिये मैं उनके साथ जाना चाहता हूँ।"
चूकि मां हमारे घर में से कभी बाहर नहीं निकलती थी और गुरु महाराज के उस बीमारी के बाद दर्शन भी उसने नहीं किये थे इसलिये एक दिन संध्या होने के बाद अपनी एक परिचारिका को साथ लेकर वह गुरु महाराज के उपाश्रय में आई । उसने दूर से जमीन पर मस्तक रख कर उनको प्रणाम किया। गुरु महाराज बिछौने में लेटे हुए थे । धनचंद यति उनके पास बैठे थे । मैं भी एक तरफ उनके सिरहाने के पास बैठा था। माता की आँखों में आँसू भर आये थे । वह कुछ बोल नहीं पा रही थी। गुरू महाराज ने धीमे स्वर में कहा - "ठुकरानी, ठाकुरसा. तो चले गये । हम भी अब चलने की तैयारी में हैं । तुम्हारा बेटा रिणमल मेरी बहुत भक्ति करता है । इसलिये मेरा इस पर बहुत प्रेम है । मैं तीर्थ यात्रा के लिये जा रहा हूँ। यह मुझे वहाँ पहुँचा कर थोड़े दिनों में मेरे साथ चलने वाले अमुक महाजन के साथ वापिस आ जाएगा। जिस महाजन के लिये उनका संकेत था वह महाजन हमारे घर की भी सारी सार संभाल रखता था । माँ सुनकर इतना ही बोली-“महाराज, यह मेरा बेटा नहीं है यह तो आपही का बेटा है। इसके पिता मरते समय आपकी गोद में इसे रख गये थे। यदि आपका आशीर्वाद इस पर
बरसेगा तो मैं अपना अहोभाग्य समझूगी।" ...... ऐसी कुछ बातें कहकर मन ही मन रोती हुई माँ गुरू महाराज को
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