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जिनविजय जीवन-कथा पिता भाई बन्धु आदि सांसारिक संबन्धों का स्मरण करना, उनके प्रति अनुराग भाव को जागृत रखना या मोह ममत्व का चिन्तन करना भी वयं था। ___इन कारणों से माता की स्मृति के कभी-कभी होते रहने पर भी मैं उसको उत्तेजित नहीं होने देता था, परन्तु ज्यों-ज्यों मेरे विचारों में परिवर्तन होते गये, और मेरी मनोवृत्ति उस चर्या से उपरत होती गई त्यों-त्यों मैं अपने जीवन मार्ग को बदलने का सोच विचार करने लगा, अनेक प्रकार के मनोमंथन और आंतरिक आन्दोलनों के बाद मैंने उक्त रूप से महात्मा गाँधी जी द्वारा राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिये जो आन्दोलन प्रारम्भ किया गया उसको मैंने अपने जीवन लक्ष्य की पूर्ति का अच्छा साधन मानकर मैं गुजरात विद्या पीठ की राष्ट्रीय शिक्षण योजना में सम्मिलित हुआ और मैंने उस साधु भेष और साधु जनोचित चयों का परित्याग किया, इस प्रकार बन्धन मुक्त होने पर मैंने अपनी माता के दर्शन करने का यह प्रयास किया है । परन्तु देव को मेरा यह प्रयत्न अभीष्ट नहीं था, अतः मैं उसमें इस प्रकार आज निष्फल हो रहा हूं। "देवेच्छा बलीयसी" यह समझ कर मन को शान्त करना, यही मुझे अब अवसर प्राप्त कर्तव्य है। __मैं उस दिन फिर ४ बजे बाद उस जैन उपाश्रय में गया, जहाँ यतिवर श्री देवीहँस जी रहते थे और मैं उनकी सेवा किया करता था । वह उपाश्रय रूपाहेली के जैन महाजनों के अधिकार में था, शायद बाद में फिर वहाँ कोई यति रहने नहीं आया, मुझे उसमें वह बड़ा लकड़ी का तख्ता वैसे ही पड़ा हुआ मिला जिस पर यति जी महाराज सोया करते थे और उसी पर से उतरते हुये वे गिर पड़े थे, जिसके कारण उनके दाहिने पैर के ऊपर की हड्डी टूट गई थी, जिसका उल्लेख अगले प्रकरण में किया जायगा, मैंने श्रद्धापूर्वक उस पट्टे पर मस्तक रख कर, अपने जीवन पथ पर चलने के लिये प्रेरित करने वाले उन स्वर्गवासी उपकारी गुरू को श्रद्धांजली समर्पित की।
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