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जिनविजय जीवन-कथा
छाती से लगा कर और अत्यधिक स्नेह ममत्व और वत्सलता के साथ मेरा सर्व प्रकार संगोपन किया, उस अनाथ और असहाय माता की सुधबुध लेने के लिये मेरा भ्रान्त मन आज तक क्यों नहीं कुछ सोच विचार सका ? ऐसे २ अनेक विचारों से मेरा मन अत्यन्त उद्विग्न होने लगा, उस संध्या को मैंने दूध भी नहीं पिया, और उस कमरे में अकेला अन्य-मनस्क होकर पड़ा रहा।
मेरी आँखों के सामने माता के साथ के कुछ स्मरण, एक के बाद एक आकर खड़े होते और विलिन हो जाते, उनमें उस अन्तिम रात्री का भी स्मरण हुआ, “जब गुरू महाराज देवीहँस जी के साथ रूपाहेली से मेरी बानेण जाने की बात त हो गई थी, और माता गुरू महाराज को प्रणाम कर घर लौटी, तब मुझे अपने पास सुलाकर वह सारी रात रोती सिसकती, मुझे अपने प्यार और अश्रुओं से नहलाती रही, मेरी मीची हुई आखों के सामने उसकी वह करूणापूर्ण मूर्ति मानों खड़ी होकर मूक भाव से मेरी ओर टकटकी लगाये देख रही थी, और मुझसे मानों क्षीण आवाज में कह रही थी कि "भाई रिणमल्ल इस दुनिया में कोई तेरी माँ भी थी, जिसने तुझे जन्म देकर लालन-पालन करके बड़ा किया था ?"
वह सारी रात ऐसे मानसिक परिताप के कारण निद्रा विहीन व्यतीत हुई, सुबह से मेरी उत्कंठा उस भाई के आने की ओर लगी रही, जो माँ का पता लगाने गया था, मेरा अन्तर्मन कहने लगा कि माता अब जीवित नहीं है । उसके कोई अच्छे समाचार मिलने की प्राशा रखना व्यर्थ है। . मैं मन को थामे बैठा रहा, कोई दो बजे वह अजिता जी आ गया, और ठाकुर साहब से जो कुछ समाचार कहे उनको सुनकर उन्होंने उसको मेरे पास भेज दिया-मैंने उसकी शक्ल से ही समझ लिया था कि कोई अच्छे समाचार तो नहीं हैं, तथापि मैंने आदर पूर्वक उसे अपने पास बिठाया, और शान्ति पूर्वक पूछा कि कहो भाई क्या समाचार
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