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जिनविजय जीवन-कथा
की गई थी। इसके लिये इन राज्यों में और इनके अधीन जागीरदारी ठिकानों में कोई भी वैसा व्यक्ति घुसने न पावे जो इस प्रकार के अान्दोलन का प्रचार करना कराना चाहता हो, इस बारे में बड़ी कड़ी निगरानी की जा रही थी।
रूपाहेली के ठाकुर साहब को यह खबर स्टेशन से ही किसी के द्वारा मिल गई थी कि एक खद्दरधारी अजनबीसा आदमी अहमदाबाद से रूपाहेली आया है और उसका कोई यहाँ परिचित या सम्बन्धी जन है नहीं। अतः ठाकुर साहब को वैसी कोई राजनैतिक शंका का हो जाना स्वाभाविक था। अतः उन्होंने मुझे पूछताछ की दृष्टि से तुरन्त रावले में बुला लेना चाहा ।
मैंने तुरन्त ही अपना वह थैला तो उसी मन्दिर के चबूतरे पर रख दिया और उस पुजारी को कह दिया कि मैं वापस आऊँ तब तक आप मेरे इस थैले का जरा खयाल रखना। रावला, याने ठिकाने का गढ़ पास ही में था। मैं उस नौकर के साथ गढ़ में गया। गढ़ के बड़े दरवाजे पर ही ठिकाने की कचहरी का पुराना मकान था। जहां पर ठाकुर साहब तथा उनके बड़े कुंवर आदि दिन में कुछ समय बैठा करते थे और आने जाने वाले व्यक्तियों से मिलते-जुलते तथा ठिकाने सम्बन्धी काम-काज देखते रहते थे। गढ़ का यह दरवाजा और उसके ऊपर कचहरीनुमा मकानों आदि को मैं बचपन से ही जानता था। २२-२३ वर्ष बाद मैं इस गढ़ में एक विचित्र मनुष्य के रूप में प्रविष्ट हो रहा हूँ इसका खयाल मुझे पग-पग पर हो रहा था। मन अजीब प्रकार के कुतूहल भावों से उद्वेलित हो रहा था । दरवाजे के अन्दर की टूटी-फूटी सीढ़ियों से चढ़ता हुआ मैं एक कमरे के सामने जा पहुंचा। उस नौकर ने कहा, यहां पर खड़े रहो। मैं कुवर साहब को इत्तिला करता हूँ। ___मैं चुपचाप गढ़ के सामने दिखाई देने वाले महलों की तरफ देखता रहा। वे महल मुझे वैसे के वैसे ही मैले कुचले रूप में दिखाई दिये,
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