________________
२८]
जिनविजय जीवन-कथा बालक मिल कर गेडीदड़ा तथा गुल्ली डंडा आदि के खेल खेला करते थे । एकदफा एक लड़के के हाथ से गुल्ली उछल कर मेरे दाहिने होठ के ऊपर के भाग पर जोर से लगी थी, जिसके कारण खूब खून निकला और गहरा घाव हो गया। यतिजी महाराज देवी हंस जी ने दवा लगा कर उसे ठीक किया । उस चोट का छोटा-सा चिह्न अभी तक मेरे होठ पर बना हुआ है।
इस घटना का स्मरण उस मैदान पर से गुजरते हुए अनायास हो आया। गांव के नजदीक एक बावड़ी बनी हुई है, जिसमें समवयस्क लड़के ऊपर से कूद २ कर खूब गंठे लगाया करते थे । रूपाहेली छोड़े बाद फिर कभी वैसे गंठे लगाने का मौका जीवन में कहीं नहीं मिला। बाल्य जीवन की सारी स्मृतियां सजग हो उठीं ।
इस प्रकार विचारों में निमग्न मैं गांव के मध्य भाग, छोटे-से बाजार के नुक्कड़ पर आ पहुँचा । सामने ही चार भुजा जी का वैष्णव मंदिर दिखाई दिया। इसी मंदिर के दरवाजे वाले भाग के चबूतरे पर बैठ कर, तत्कालीन पुजारी ब्राह्मण के पास मैंने सबसे पहले वर्णमाला का अक्षर बोध प्राप्त किया था और कुछ पट्टी पहाड़े भी सीखे थे । मैं सीधा उस मंदिर के दरवाजे में जाकर चबूतरे पर थैला रख कर बैठ गया । पुराने पुजारी जैसा ही एक ब्राह्मण केवल मली धोती पहने हुए वहाँ बैठा मिला । मैंने ब्राह्मण को पांवा धोक किया
और पूछा कि आप इस मंदिर के पुजारी हैं ? कुछ देर तक तो विस्मय के साथ वह मेरी ओर देखता रहा फिर बोला कि, कहाँ से
आ रहे हो? कौन हो ? मैंने कहा, अहमदाबाद से पा रहा हूँ। एक शिक्षक हूँ। उस मंदिर के पास ही एक जैन मंदिर भी है और उसीसे सटा हुआ जैन यतियों का उपाश्रय । इस उपाश्रय में ही यतिवर देवी हंस जी महाराज रहते थे। मैंने पुजारी से पूछा कि उपाश्रय में कोई यति जी हैं ? तो पुजारी ने कहा कि कोई यति नहीं है । फिर मैंने पूछा कि उपाश्रय खाली ही पड़ा है तो उसका इन्तजाम कौन करता है ? ब्राह्मण ने कहा ओसवाल महाजन करते हैं । मैंने पूछा कि उपाश्रय के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org