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जिनविजय जीवन-कथा
अंग्रेजों ने उस ढ़ाणी को जला देने का आदेश दिया और जो कोई पुरुष हाथ में आ जाय उसको पकड़ लेने का अथवा मार डालने का हुक्म दिया । तब बचे खुचे कुछ स्त्री-पुरुष अपना जीवन बचाने की दृष्टि से इधर उधर भाग निकले। उनमें से कुछ तो आस पास के गाँवों में अपने रिश्तेदारों के यहाँ जाकर छुप गये। मेरे दादा और पिता वगैरह तीन-चार व्यक्ति इसी तरह भाग निकले थे और छिपते लुकते पुष्कर के आस पास की पहाड़ियों में जाकर आश्रय पाया । कुछ दिन बाद किन्हीं साधु सन्तों की सलाह से मेरे दादा तथा पिता ने गृहस्थ का भेष बदल कर साधु का भेष धारण किया । वहाँ से कुछ दिन बाद वे उन साधुओं के साथ राजस्थान के प्रदेश से बाहर आबू, द्वारिका, गिरनार आदि की यात्रा में निकल पड़े । बरसों तक इस प्रकार घूमतेफिरते वे आबू के पास वाली अरावली पहाड़ियों के अन्दर भीतरी एकान्त स्थानों में रहे ।
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राजपूत सैनिकों ने भाग लिया पकड़ लेने के लिए तथा
सन् १८५७ के गदर के समय जिन तथा उनकी जिन्होंने मदद आदि की उनको सजा देने के लिए अंग्रेज सरकार ने राजस्थान के सब राज्यों को सख्त आदेश भेज दिये थे । इसलिये वे लोग, जिनका उस बलवे से कुछ भी सम्बन्ध रहा, सब अपनी रक्षा के लिए इधर उधर भाग छूटे उदयपुर के महाराणा ने भी अपने राज्य के सभी जागीरदारों और ठिकाने वालों को अंग्रेजी सरकार के उक्त आदेशानुसार उचित कार्यवाही करने के आदेश भेज दिये थे ।
अतः मेरे दादा और पिता ने राजस्थान की सीमाएं छोड़कर उक्त रूप से गुजरात काठियावाड़ जैसे दूर प्रदेशों में अज्ञात रूप में रह कर तथा साधु का भेष धारण कर अपना जीवन व्यतीत करना पसंद किया ।
कोई चौदह पन्द्रह वर्ष तक इस प्रकार वे भटकते रहे। बाद में जब यह विश्वास होने लगा कि बलवे के जमाने को लोग प्राय: भूल रहे हैं और राज्य सत्ता भी उन घटनाओं को विस्मृत-सी मानकर उस
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