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है इसलिये अब मैं स्वयं लिखने पढ़ने में असमर्थ सा हूं। मैं जो यहाँ चन्देरिया के ग्रामीण आश्रम में रहता हूं। वहाँ मेरे पास केवल श्रमजीवी व्यक्तियों के सिवाय अन्य किसी शिक्षित व्यक्ति का कोई सहयोग प्राप्त नहीं है जो मेरे ऐसे लेखन, वाचन आदि कार्य में विशिष्ठ उपयोगी हो सके । मेरे पास सेवा निमित्त रहने वाले एक विद्यार्थी जिसने केवल हिन्दी की ८ वीं कक्षा तक का ही अध्ययन किया है इसकी प्रतिलिपि आदि करने में यथेष्ट प्रयत्न किया । भाषा की शुद्धि अशुद्धि का मै खयाल नहीं कर सका । किसी तरह यह कहानी छप जाय ऐसा मेरे परिजनों का खयाल होने से यह प्रयत्न हुआ है । इसके छपने में अजमेर निवासी प्रसिद्ध साहित्य प्रिय और समाज सेवी श्री जीतमल जी लूणियाँ ने प्रेस आदि का सुप्रबन्ध कर दिया जिससे यह कहानी इस रूप में अपना जन्म सूचित कर रही है । इसका जीवन विकास होगा या नहीं यह कहानी कहने वाले की कल्पना से बाहर है । आज तो यह कहानी यहीं समाप्त हो रही है ऐसा सोचकर मैं इन पंक्तियों के आगे पूर्ण विराम का चिन्ह रख रहा हूं।
जैसा कि प्रस्तुत कथा के पृष्ठ ६३ पर से सूचित होता है अर्थात् वि० सं० १६५७ के जेष्ठ शुक्ला एकादाशी के दिन मैं सर्व प्रथम अपनी जननी और जन्म भूमि से विदा होकर दुनियां को देखने तथा कुछ सीखने के लिये चल पड़ा। उसी दिन से मेरा जीवन चक्र गतिमान हुआ और इस कहानी के संस्मरणात्मक चित्र मानस पटल पर अंकित होने लगे ।
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