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________________ १७४] जिनविजय जीवन-कथा पत्रांक २ रूपाहेली (मेवाड़) ताः १४-२-१६३० परम पूज्य, महा माननीय श्रीमान मुनि जिनविजय जी महाराज की पुनीत सेवा में सादर प्रणाम अत्रशम् तत्रास्तु-कृपा पत्र श्रीमानों का ता: ११-२-३० का आज ही मिला । अभूतपूर्व प्रसन्नता हुई। विशेषतः युरोप की सुदूर यात्रा सकुशल करके लौटने से हुई । आपने जब युरोप को प्रस्थान किया था, उन दिनों में ही समाचार-पत्रों द्वारा हमको ज्ञात हो गया था क्योंकि आपके समान प्रसिद्ध विज्ञ पुरुषों की विदेश यात्रा छुपी नहीं रह सकती। इस यात्रा से ज्ञान वृद्धि के साथ अनेक प्रकार के विद्वानों का सम्मिलन तथा बहुत से दर्शनीय पदार्थों का अवलोकन का अवसर प्राप्त हुआ ही होगा। आगामी मास में हम लोगों को दर्शन प्रदान करने और राजपूताने में भ्रमण की इच्छा प्रकट की, इस बात से हम लोगों को असीम आनन्द हुआ है । कृपया शुभागमन की निश्चित तिथि की सूचना लिखावें । मेरे लिये आपने पिता तुल्य शब्द का प्रयोग अनुचित किया है । मैं तो आपका तुच्छ सेवक और शिष्य हूँ। राजपूताने का और क्षत्रिय जाति का तथा इस आपकी जन्म भूमि का विशेष उपकार आपके हाथ से होने की पूर्ण आशा है। आपने कई पुरातत्त्व संबन्धी ग्रंथ प्रकाशित किये हैं, उनकी एक एक प्रति इस सेवक को प्रदान करने के लिये साथ लावें तो बड़ी कृपा होगी। क्योंकि मेरे को ऐतिहासिक पुस्तकों को देखने की बड़ी अभिलाषा रहा करती है। आपकी दया से यहां सर्व प्रकार आनन्द है ' मेयो कालेज, अजमेर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001967
Book TitleJinvijay Jivan Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherMahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada
Publication Year1971
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size11 MB
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