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जिनविजय जीवन - कथा
यू, वहां रहते उन साधु महाराज का तथा अन्य भाई बहिनों का परिचय ज्यों बढ़ता गया त्यों मेरे मन में यह भावना जागृत हुई कि क्यों न मैं भी इन साधुओं की जीवनचर्या का अनुसरण करूँ और इसी तरह का जैन साधू बन जाऊँ । वे साधू और उनके भक्त भाई बहिन भी मुझे इस बात की प्रेरणा करने लगे और कहने लगे कि यदि मैं इस छोटी उम्र में दीक्षा ले लेता हूँ तो भविष्य में मैं अच्छा पढ़ा विद्वान बन सकूंगा और हजारों लोगों का पूज्य बन सकूंगा । कुछ दिन बाद यति ज्ञानचन्दजी जिन्होंने मुझे बड़ नगर से बदनावर भेज दिया था मुझे लेने के लिए बदनावर आए और उस महाजन युगल से मेरे विषय में पूछताछ की। वहाँ से वे फिर दिगठान आए और मुझसे मिले तथा कहने लगे कि चलो अब हम वापस मेवाड़ चलें । मैंने कहा मैं तो अभी यहीं रहना चाहता हूँ और इन साधु महाराज के पास कुछ पढ़ना चाहता हूँ ।
ज्ञानचंदजी को जब मेरा यह विचार मालूम हुआ कि मैं इन स्थानक वासी सम्प्रदाय के जैन साधु जी का शिष्य बन जाना चाहता हूँ तब उनने इस संप्रदाय के बारे में बहुत सी बातें मुझे कहीं । वे कहने लगे कि हम यति लोग इस संप्रदाय के विरोधी हैं। क्योंकि ये लोग जैन धर्म का सबसे अधिक मुख्य अंग जो मंदिर बनवाना उनमें तीर्थंकर भगवान की मूर्तियाँ बिराजित कर उनकी पूजा, प्रतिष्ठा आदि करना तथा उसके निमित्त अनेक उत्सव आदि मनाना उसके ये बड़े विरोधी । ये लोग न मंदिरों में जाते हैं न कोई वैसा उत्सव मनाते हैं और ना ही शत्रुंजय, गिरनार, आबू, केसरिया नाथ जी आदि तीर्थों की यात्रा करते हैं । इन लोगों के आचार विचार भी हम लोगों से बहुत भिन्न हैं । ये न कभी स्नान करते हैं, न हाथ मुंह आदि धोते हैं, कपड़े भी हमेशा मैले और गंदे रखते हैं। मुंह पर कपड़े की पट्टी बांधे रहते हैं । इत्यादि कई प्रकार की इनकी ऐसी बातें जो तुमको पसन्द नहीं श्रायेगी । तुम्हारी विद्या पढ़ने की जो बहुत इच्छा है वह इनके पास रहने से कभी सफल नहीं होगी । ये लोग हमारे जो पुराने शास्त्र हैं उनको बिलकुल नहीं पढ़ते। अपने यतियों में कई ऐसे बड़े २ ठिकाने हैं और उनके मालिक
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