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मण्डप्या निवास जैन यतिवेश धारण [१५३ इन चेलाजी को मैं वड़नगर से ज्ञानचन्दजी यति को कहकर पर्युषणा के लिए यहां ले आया हूँ। अपने यहां इस वर्ष कोई यति जी नहीं हैं और मंदिर का काम भी पूरा करना है सो इस निमित्त से अपने को पर्युषणा में कल्प-सूत्र सुनने का मौका मिल जायगा इत्यादि । फिर उस महाजन ने मेरे भोजन के बारे में भी वैसी व्यवस्था बनाली, जिससे मेरे पास रोज एक घर से खाने का भोजन पहुंच जाया करे । परन्तु प्रारम्भ में दो चार दिन के लिए तो उस महाजन ने अपने ही घर पर भोजन करने के लिए इच्छा प्रकट की। - तदनुसार में सुबह शाम नियत समय पर उनके यहां भोजन करने चला जाता था। - वह श्रावक कुछ धार्मिक वृति वाला था। पति-पत्लि दोनों ही मृदुल और स्नेही स्वभाव के थे। उनके कोई सन्तान नहीं थी। छोटा सा अपना व्यापार करते रहते थे। गांव के महाजनों में उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। उनकी पत्नी अधिक कोमल स्वभाव की थी। मैं जब उनके यहां भोजन करने बैठता तब वह श्राविका बाई बहुत स्नेह के साथ मुझे भोजन खिलाने का प्रयत्न करती थी। यों मेरा भोजन बहुत स्वल्प रूप में होता था। मैं साधारणतया दो तीन रोटी ही खाने का अभ्यासी था जिसे देखकर वह बाई कुछ अधिक रोटी खाने का आग्रह किया करती थी। और कहती रहती थी कि भाई साहब माप कुछ संकोच कर रहे हैं और पूरा पेट भरकर भी रोटी नहीं खाते हैं सो क्या बात है इत्यादि । बीच २ में मुझसे मेरे कुटुम्ब या माता-पिता मादि के बारे में भी वह बड़ी जिज्ञासा के साथ पूछा करती थी। परन्तु मैं अपने बारे में कुछ अधिक जानकारी नहीं देना चाहता था । उस श्रावकदम्पति का सौहार्द्र पूर्ण भाव जानकर मेरा मन भी वहां ठीक लगने लग गया। - मैं उस मंदिर में अकेला ही रहता था। मेरे पास केवल एक छोटा सा पीतल का लोटा था जो पानी पीने आदि के सब काम में आता
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