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मंडप्या निवास जैन यतिवेश धारण
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मैं मां को अपना मुंह किस तरह दिखाऊँ इसलिए मेरा मन रूपाहेली जाने को बिल्कुल भी तैयार नहीं था।
में कुछ दिन बानेण में रहा । अधिकतर उस बावड़ी पर बैठा रहता था जिसके पास मैंने अपने हाथों से गुरु महाराज के मृत शरीर को अग्नि की चिता में भस्मी भूत बना दिया था। उस बावड़ी का वह एकान्त स्थान मुझे अच्छा लगता था और साथ में कुछ खेत का काम भी करता रहता था। कोई महीना भर हुआ था कि मंडप्या से यति ज्ञानचंद जी मुझे लेने पाये। उन्होंने धनचन्द जी से कहा कि गंगापुर में एक मन्दिर की प्रतिष्ठा होने वाली है। जिसका कार्य वहाँ के महाजनों ने मुझे सोंपा है । प्रतिष्ठा में पांच सात और यतियों की भी आवश्यकता रहेगी इसलिए मैं आपको भी उस समय बुलाऊंगा। मैं अभी भाई किशनलाल को मंडप्या ले जाना चाहता हूँ, जिससे उस प्रतिष्ठा विधि में बोलने के लिए मंत्र-पाठ तथा शान्ति आदि का पाठ इसको सिखा दूं । इसका शब्द उच्चारण आदि अच्छा है। और कुछ सारस्वत व्याकरण और अमर कोष के कुछ श्लोक वगैरह भी इसको आते हैं इसको स्व० देवीहंस जी महाराज ने बसगहरम् आदि कुछ स्मरण भी सिखाये थे जिससे प्रतिष्ठा विधि के कार्य में इसका अच्छा सहयोग मिल सकेगा। ऐसी बातें कह कर वह मुझे अपने गांव ले गये। मैं भी धनचन्द जी के साथ रहने की अपेक्षा ज्ञानचन्द जी के साथ रहना अधिक पसन्द करता था।
मंडप्या में रहकर ज्ञानचंद जी से पूजा-प्रतिष्ठा आदि के समय बोले-जाने वाले कितने मंत्र, स्तुति पूजा के कुछ स्तवन आदि कंठस्थ कर लिये । शायद माघ या फागुन मास में वह प्रतिष्ठा महोत्सव होने वाला था। कोई महीने भर पहले ही हम लोग गंगापुर पहुँच गये। वहां एक स्थानिक जति रहते थे पर वे कुछ विशेष पढ़े-लिखे नहीं थे। उनके साथ ही उपाश्रय में हम लोगों ने डेरा डाला। हमारे भोजन के लिए तो गांव के बनियों ने यह व्यवस्था की थी कि उनके घरों से रोज सुबह, शाम गोचरी के रूप में आहार ले प्राया जाय । यति जी ज्ञानचंद जी ने यह काम मेरे सुपुर्द किया । यों तो मैं सिर पर एक मामूली
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