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करते हुए सन् १९१८ के अन्त में महाराष्ट्र के प्राणस्वरूप मुख्य जागृति केन्द्र पूना नगर में जाना हुआ। वहां पर सांस्कृतिक शैक्षणिक एवं राष्ट्रीय जागरण के वातावरण ने तथा लोकमान्य तिलक, सर रामकृष्ण भाँडारकर, स्त्रीजाति उद्धारक, तपस्वी महर्षि धोंडो केशव कर्वे आदि प्रसिद्ध पुरुषों के समागम में आने का और उनके साथ विचारों का आदान प्रदान करने का, अकल्पित और अनन्य साधारण लाभ मिला । महात्मा गांधीजी का भी सर्वप्रथम सम्पर्क और समागम पूना रहते हुए ही हुआ ।
इससे पूर्व पिछले ४-५ वर्षों में मेरे अपने जीवन के लक्ष्य और उपयोग के बारे में भी अनेक नये-नये विचार और नयेनये संकल्प उठने लगे थे । समाज और देश में चलने वाली विविध प्रकार की राजकीय, सामाजिक और शैक्षणिक क्रान्ति सूचित करने वाली प्रवृत्तियाँ, मेरे मन को भी प्रान्दोलित करने लगी थी । यद्यपि मैं बाह्य रूप से सम्प्रदायानुसारी मुनिचर्या का ठीक-ठीक पालन करता रहता था, परन्तु प्रान्तरिक रूप से मेरे मन का तादात्म्य उसके साथ नहीं बना रहता था । साधुमार्गी सम्प्रदाय में रहते हुये मेरा मानसिक विचार क्षेत्र बहुत ही संकुचित था । उस अवस्था तक न मेरा विशेष अध्ययन ही हुआ था, न सम्प्रदायिक ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार के साहित्य का अवलोकन और वाचन आदि करने का ही कोई प्रसंग प्राप्त हो सका था और न अन्य किसी प्रकार के विद्वानों के या विचारकों के समागम में आने का अवसर ही संभव था । अतः वहाँ पर साधुत्रों के
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