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गुरु महाराज के स्वर्गवास के बाद
न मौका ही मिला था और न किसी प्रकार का अनुभव ही हुमा था प्राश्विन मास का समय लग गया था और खेतों में मकई पकने लगी थी मैं उन खेतों की रखवाली करने के लिये दिन रात वहीं रहने लगा और उसमें मुझे बड़ा आनन्द भी आने लगा।
खेत के बीच में चार थूणियां प्रर्थात् लकड़ी की बल्लियां गाड़ कर पाठ दस फुट की ऊंचाई पर एक मंच सा बना दिया जाता है जिसको मेवाड़ी भाषा में डागला या माला कहते हैं। उस डागले पर वर्षा से बचने के लिये एक छतरीनमा खाखरे के पत्तों से बड़ा सा टोप बना लिया जाता है, जिसके अन्दर रखवाली करने वाला रात को सो भी सकता। मैं भी उसी प्रकार के एक डागले पर राशि को वहां सो जाया करता था।
गुरु महाराज के स्वर्गवास हो जाने का समाचार रूपाहेली पहुंचा तो उसे सुनकर मेरी मां को बड़ा दुख हुआ और उसने उस ओसवाल महाजन को, जो मुझे गुरु महाराज के साथ बानेण छोड़ने आया था, भेजा कि तुम जाकर रिणमल को अब मेरे पास ले आओ।
इसलिये आश्विन मास की नव रागी के दिनों में वह महाजन बानेण आया और धनचन्द जी से कहा कि-रिणमल को इसकी माता बुला रही है इसलिये मैं लेने आया हूँ। धनचन्द को यह शंका हुई कि अब स्वर्गस्थ यतिवर श्री देवी हंस जी का जो कुछ सामान और रुपया पैसा था उसको भी कहीं रिणमल के साथ रूपाहेली के महाजन आदि न मांगलें और रिणमल यदि रूपाहेली चला जाता है तो वह सामान और रुपया पैसा मैं अपने पास कैसे रख सकूँगा। कहीं कोई लोग या दूसरे यति किसी प्रकार का बखेड़ा न खड़ा करदें-इत्यादि बातें सोचकर धन चन्द जी ने उस महाजन को कुछ समझा बुझा कर वैसे ही वापिस रवाना कर दिया।
परन्तु उस महाजन ने मुझे भी कहा कि 'तुम्हारी मां तुम्हें बहुत याद करती है और तुम्हारा छोटा भाई बादल भी कई दिन से बीमार है
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