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वर्ष की थी । दीक्षा ग्रहण के बाद, सम्प्रदाय के नियमानुसार वर्षाकालीन चातुर्मास के सिवाय, शीत काल और ग्रीष्म काल के आठ महिने प्रायः पादभ्रमण करते हुए भिन्न-भिन्न गाँवों और नगरों का प्रवास होता रहा । वि० सं० १६५६ के आश्विन शुक्ला १३ के दिन मैंने यह दीक्षा ग्रहण की। कोई ६ वर्ष तक मैंने इस दीक्षाचर्या का पूर्ण रूप से पालन किया। इन वर्षों में मालवा के धार, उज्जैन, इन्दोर, रतलाम आदि नगरों का प्रवास किया तथा खान देश, दक्षिण महाराष्ट्र के कई भागों में परिभ्रमण किया।
बचपन से ही मेरी विद्या पढ़ने की अभिरुचि तीव्र रही। इसी कारण मैंने सुखानन्दजी में पहले भैरवी दीक्षा ग्रहण की, तथा फिर जैन यतिवेश भी धारण किया और फिर उक्त रूप से जैन साधु मार्ग की दीक्षा ली । इस मार्ग के साधु वर्ग में समयानुसार जो विद्याध्ययन की परिपाटी और पद्धति थी, उसका यथेष्ट अनुसरण करते हुए मैंने, यथाशक्य जो कुछ ज्ञान प्राप्त करने जैसा था, उसे प्राप्त करने का प्रयत्न किया। लेकिन उम्र और अनुभव के बढ़ने पर मैंने अपनी बुद्धि और रुचि के अनुरूप इस सम्प्रदाय में बिशेष ज्ञान प्राप्ति का कोई साधन और संयोग न देखकर, विक्रम संवत् १९६५ के भाद्रपद में मैंने इस सम्प्रदाय का वेश छोड़ दिया और किसी अन्य मार्ग की खोज में निकल पड़ा । जब तक मैंने साधुमार्ग का अनुसरण किया तब तक उक्त सम्प्रदाय के कठिन से कठिन आचार व्यवहार का परिपालन किया । आज जो इस मार्ग के साधुओं का जीवन व्यवहार है इसकी अपेक्षा उस
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