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आचार्य मल्लवादी का नयचक्र
साक्षात्कार में समर्थ है, विभिन्न मतवाद या नय नहीं ।
तुम्ब हो, आरे हों किन्तु नेमि न हो तो वह चक्र गतिशील नहीं बन सकता और न चक्र ही कहला सकता है अत एव नेमि भी आवश्यक है । इस दृष्टि से नयचक्र के पूर्ण होने में भी नेमि आवश्यक है । प्रस्तुत नयचक्र में तीन अंश में विभक्त नेमि की कल्पना की गई है। प्रत्येक अंश को मार्ग कहा गया है । प्रथम चार आरे को जोड़नेवाला प्रथम मार्ग, आरे के द्वितीय चतुष्क को जोड़नेवाला द्वितीय मार्ग और आरों के तृतीय चतुष्क को जोड़नेवाला तृतीय मार्ग है । मार्ग के तीन भेद करने का कारण यह है कि प्रथम के चार विधिभंग हैं । द्वितीय चतुष्क उभयभंग है और तृतीय चतुष्क नियमभंग है । ये तीनों मार्ग क्रमशः नित्य, नित्यानित्य और अनित्य की स्थापना करते हैं" । नेमि को लोहवेष्टन से मंडित करने पर वह और भी मजबूत बनती है अत एव चक्र को वेष्टित करनेवाले लोहपट्ट के स्थान में सिंहगणविरचित नयचक्रवालवृत्ति है । इस प्रकार नयचक्र अपने यथार्थ रूप में चक्र है ।
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नयों के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो भेद प्राचीनकाल से प्रसिद्ध हैं । नैगमादि सात नयों का समावेश भी उन्हीं दो नयों में होता है । मल्लवादी ने द्वादशारनयचक्र की रचना की तो उन बारह नयों का संबंध उक्त दो नयों के साथ बतलाना आवश्यक था । अत एव आचार्य स्पष्ट कर दिया है कि विधि आदि प्रथम के छः नय द्रव्यार्थिक नय के अन्तर्गत हैं और शेष छ: पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत हैं । आचार्य ने प्रसिद्ध नैगमादि सात नयों के साथ भी इन बारह नयों का संबंध बतलाया है। तदनुसार विधि आदि का समन्वय इस प्रकार है २ । १. व्यवहार नय, २-४. संग्रह नय, ५-६ नैगम नय, ७. ऋजुसूत्र नय, ८-९ शब्दनय, १०. समभिरूढ, १११२. एवंभूत नय ।
नयचक्र की रचना का सामान्य परिचय कर लेने के बाद अब यह देखें कि उसमें नयोंदर्शनों का किस क्रम उत्थान और निरास हैं ।
(१) सर्व प्रथम द्रव्यार्थिक के भेदरूप व्यवहार नय के आश्रय से अज्ञानवाद का उत्थान है । इस नय का मन्तव्य है कि लोकव्यवहार को प्रमाण मान कर अपना व्यवहार चलाना चाहिए । इसमें शास्त्र का कुछ काम नहीं । शास्त्रों के झगड़े में पड़ने से तो किसी बात का निर्णय हो नहीं सकता है । और तो और ये शास्त्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण का भी निर्दोष लक्षण नहीं कर सके । वसुबन्धु के प्रत्यक्ष लक्षण में दिङ्नाग ने दोष दिखाया है और स्वयं दिङ्नाग का प्रत्यक्ष लक्षण भी अनेक दोषों से दूषित है । यही हाल सांख्यों के वार्षगण्यकृत प्रत्यक्ष लक्षण का और वैशेषिकों के प्रत्यक्ष का है । प्रमाण के आधार पर ये दार्शनिक वस्तु को एकान्त सामान्य विशेष और उभयरूप मानते हैं, किन्तु उनकी मान्यता में विरोध है । सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद का भी ये दार्शनिक समर्थन करते हैं किन्तु ये वाद भी ठीक नहीं । कारण होने पर भी कार्य होता ही है यह भी नियम नहीं । शब्दों के अर्थ जो व्यवहार में प्रचलित हों उन्हें मान कर व्यवहार चलाना चाहिए । किसी शास्त्र के आधार पर शब्दों के अर्थ का निर्णय हो नहीं सकता है । अत एव व्यवहारनय का निर्णय है कि वस्तुस्वरूप उसके यथार्थरूप में कभी जाना नहीं जा सकता है अत एव उसे जानने का प्रयत्न भी नहीं करना चाहिए । इस प्रकार
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