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निर्ग्रन्थ का चातुर्याम-'सर्ववारिवारितो' का अर्थ
पालिपिटक में दीघनिकाय-सामञफलसुत्त में और अन्यत्र भगवान बुद्ध के समकालीन अनेक तीर्थंकरों के मतका निर्देश है । उनमें जैनधर्म के प्रवर्तक भगवान् महावीर के मतका भी निर्देश मिलता है । वहाँ भगवान् महावीर को 'निगंठ नात-पुत्त' (इसके पाठान्तर भी मिलते हैं) कहा गया है । जैन आगम में भी भगवान् महावीर के लिए अनेक वार 'नायपुत्त' (ज्ञातृपुत्र) नाम मिलता है । अतएव विद्वानों ने भगवान् महावीर का ही मत पालिपिटकों में नातपुत्त के नाम से दिया गया है-इसे स्वीकृत किया है । यहाँ जो उनका विशिष्ट मत सामञफलसुत्त में बताया गया है, उसी की चर्चा करनी है । उसमें जो पाठ है वह इस प्रकार है
निगण्ठो नातपुत्तो मं एतदवोच-'इध महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवुतो होति । कथं च महाराज निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुत्तो होति ? इध महाराज निगण्ठो सव्ववारिवारितो च होति, सब्बवारियुत्तो च सव्ववारिधुतो च होति, सव्ववारिफुरो च । एवं खो महाराज निगण्ठो एवं चातुयामसंवरसंवुतो होति अयं वुच्चति महाराज निगण्ठो गतत्तो च यतत्तो च ठितत्तो चाति ।"
इस उल्लेख में जो 'सव्ववारिवारितो' इत्यादि पाठ है उससे क्या अभिप्रेत है, इसीकी विशेष चर्चा यहाँ करनी है । टीकाकार बुद्धघोष का आश्रय लेकर सर्वप्रथम डा. याकोबी ने इसका अनुवाद करने का प्रयत्न किया है । उन्होंने 'सव्ववारिवारितो' गत 'वारि' शब्द का अर्थ पानी समझा है और तात्पर्य निकाला कि-Nigantha abstains from all (cold) water. किन्तु 'सव्ववारिवुत्तो' आदि पदों में जो 'वारि' शब्द आता है उसका अर्थ निषिद्ध या निषेधयोग्य समझा है । अतएव अर्थ किया कि
he abstains from all bad deeds, by abstinence from all bad deeds he is free from sins, he realises abstinence from all bad deeds, (S.B.E. vol, XLV, Intro. p. XX). उसके बाद इस उल्लेख के जितने भी अनुवाद हुए, उन सब में प्रथम 'वारि' शब्द का सर्वत्र ‘पानी' अर्थ ही दिखाई देता है- (R. Davids : S. B. B. II, p. 74; श्री कश्यप कृत हिन्दी पृ. २१; डा. नगराज अनुशीलन, पृ. ४५४ इत्यादि) । अपवाद केवल फेन्च भाषा में जो डा. रेनूने अनुवाद किया (१९४९) उसमें दिखाई देता है । उन्होंने 'वारि' शब्द का 'वारणयोग्य' ऐसा स्पष्ट अर्थ किया है । अतएव सर्वत्र 'वारि' शब्द का एक अर्थ उन्होंने किया है । आश्चर्य है कि इस उल्लेख में पालिकोष भी 'वार' शब्द का अर्थ 'पानी' ही देता
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