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जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन
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से भगवान् महावीर के सिद्धान्तों की भिन्न भिन्न बात को लेकर अपना मतभेद प्रकट किया है । ये ही निह्नव कहे गए हैं ।
अनुयोग में शब्दार्थ करने की प्रक्रिया का वर्णन मुख्य है, किन्तु प्रसंग से उसमें प्रमाण और नय का तथा तत्त्वों का निरूपण भी अच्छे ढंग से हुआ है । आगमों की टीकाएँ
___ इन आगमों की टीकाएँ प्राकृत और संस्कृत में हुई हैं । प्राकृत टीकाएँ नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि के नाम से लिखी गई हैं । नियुक्ति और भाष्य पद्यमय हैं और चूर्ण गद्य में । उपलब्ध नियुक्तियाँ भद्रबाहु द्वितीय की रचना हैं । उनका समय विक्रम पाँचवीं या छठी शताब्दी है । नियुक्तियों में भद्रबाहु ने कई प्रसंगों में दार्शनिक चर्चाएँ बडे सुन्दर ढङ्ग से की हैं । खास कर बौद्धों तथा चार्वोकों के विषय में नियुक्ति में जहाँ कहीं अवसर मिला, उन्होंने अवश्य लिखा है । आत्मा का अस्तित्व उन्होंने सिद्ध किया है । ज्ञान का सूक्ष्म निरूपण तथा अश्हसा का तात्त्विक विवेचन किया है । शब्द के अर्थ करने की पद्धति के तो वे निष्णात थे ही । प्रमाण, नय और निक्षेप के विषय में लिखकर भद्रबाह ने जैन दर्शन की भूमिका पक्की की है।
किसी भी विषय की चर्चा का अपने समय तक का पूर्णरूप देखना हो तो भाष्य देखना चाहिए । भाष्यकारों में प्रसिद्ध संघदासगणि और जिनभद्र हैं । इनका समय सातवीं शताब्दी है । जिनभद्र ने विशेषावश्यक भाष्य में आगमिक पदार्थों का तर्कसंगत विवेचन किया है। प्रमाण, नय, निक्षेप की सम्पूर्ण चर्चा तो उन्होंने की ही है, इसके अलावा तत्त्वों का भी तात्त्विक युक्तिसंगत विवेचन भी किया है । ऐसा कहा जा सकता है कि दार्शनिक चर्चा का कोई ऐसा विषय नहीं रहा, जिन पर जिनभद्र ने अपनी कलम न चलाई हो । बृहत्कल्पभाष्य में संघदास गणी ने साधुओं के आहार-विहार आदि नियमों के उत्सर्ग-अपवाद मार्ग की चर्चा दार्शनिक ढंग से की है । इन्होंने भी प्रसंग से प्रमाण, नय और निक्षेप के विषय में लिखा है ।
करीब सातवीं-आठवीं शताब्दी की चर्णियाँ मिलती हैं । चर्णिकारों में जिनदास महत्तर प्रसिद्ध हैं । इन्होंने नन्दी की चूर्णी के अलावा और भी चूर्णियाँ लिखी हैं । चूर्णियों में भाष्य के ही विषय को संक्षेप से गद्य में लिखा गया है । जातक के ढंग की प्राकृत कथाएँ इनकी विशेषता है ।
जैन आगमों की सबसे प्राचीन संस्कृत टीका आ. हरिभद्र ने की है । उनका समय वि. ७५७ से ८५७ के बीच का है । हरिभद्र ने प्राकृत चूर्णियों का प्रायः संस्कृत में अनुवाद ही किया है और यत्र-तत्र अपने दार्शनिक ज्ञान का उपयोग करना भी उन्होंने उचित समझा है । इसीलिए हम उनकी टीकाओं में सभी दर्शनों की पूर्व-पक्षरूप से चर्चा पाते हैं । इतना ही नहीं किन्तु जैनतत्त्व को भी दार्शनिक ज्ञान के बल से सुनिश्चित रूप में स्थिर करने का प्रयत्न देखते
हरिभद्र के बाद शीलांकसूरि ने (दशवीं शताब्दी) संस्कृत टीकाओं की रचना की । शीलांक
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