________________ 247 तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पा: कल्पोपपन्नपर्यन्ताः // 4-3 // इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषद्यात्मरक्षलोकपालानीक प्रकीर्णकाभियोग्यकिल्बिषिकाश्चैकशः // 4-4 // त्रायस्त्रिंश लोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्काः // 4-5 // पूर्वयोर्दीन्द्राः // 4-6 // पीतान्तलेश्याः // 4-7 // कायप्रवीचारा आ ऐशानात् // 4-8 // . शेषाः स्पर्शरूपशब्दमन:प्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः // 4-9 // परेऽप्रवीचाराः // 4-10 // भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः // 4-11 / / व्यन्तराः किन्नरकिंपुरुषमहोरगगान्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः // 4-12 / / ज्योतिष्काः सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णतारकाश्च // 4-13 // मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके // 4-14 / / तत्कृतः कालविभागः // 4-15 / / बहिरवस्थिताः // 4-16 // वैमानिकाः // 4-17 // कल्पोपपन्ना: कल्पातीताश्च // 4-18 / / उपर्युपरि // 4-19 // सौधर्मैशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्रसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसुप्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धे च // 4-20 // स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः // 4-21 / / गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः // 4-22 // पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वीत्रिशेषेषु // 4-23 / / प्राग् ग्रैवेयकेभ्यः कल्पाः // 4-24 // ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः // 4-25 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org