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________________ तीर्थंकर [ ३९ पुष्य होने के कारण उन आभियोग्य जाति के देवों को विविध प्रकार के वाहन आदि का रूप धारण करना पड़ता था । ऐसी ही दशा किल्विषक देवों की हीन पुण्य होने के कारण होती है । वं अशुद्ध पिंडधारी न होते हुए भी शूद्रों के समान उच्च देवों से पृथक् गमनादि कार्य करते हैं । जिनेन्द्र जन्मोत्सव के समय उनका कहाँ स्थान रहता है, यह पृथक् रूप से उल्लेख नहीं किया गया है । गज रूपधारी देवों की सेना विद्याधर, कामदेव आदि का षड्ज स्वर में गुणगान करती है । तुरङ्ग सेना ऋषभ स्वर में मांडलिक महामांडलिक राजाओं का गुणगान करती है । देवरथ वाली सेना गांधार स्वर में बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण के बल-वीर्य का गुणगान करती हुई नृत्य करती जाती थी । पैदल रूप देवसेना मध्यम स्वर में चक्रवर्ती की विभूति, बल, वीर्यादि का गुणगान करती थी । वृषभ सेना पंचम स्वर में लोकपाल जाति के देवों का गुणानुवाद करती हुई चरमशरीरी मुनियों का गुणगान करती थी । धैवत स्वर में गन्धर्व-सेना गणधरदेव तथा ऋद्धिधारी मुनियों का गौरवगान करती थी । नृत्यकारिणी सेना निषाद स्वर में तीर्थंकर भगवान के छियालीस गुणों का और उनके पुण्य जीवन का मधुर गान करती थी । अद्भुत रस का उद्दीपक ऐरावत सौधर्मेन्द्र ने ऐरावत हाथी पर शची के साथ बैठकर अनेक देवों से समलंकृत हो अयोध्या के लिए प्रस्थान किया । ऐरावत गज का वर्णन अद्भुत रस को जागृत करता है । दैविक चमत्कार का वह अत्यन्त मनोज्ञ रूप था । विक्रिया शक्ति सम्पन्न देवों में कल्पनातीत शक्ति रहती है । उनका शरीर प्रौदारिक शरीर की अपेक्षा अत्यन्त सूक्ष्म होता है । उस सूक्ष्म परिणमन प्राप्त वैक्रियिक शरीर का स्थूल रूप दर्शन ऐरावत हाथी के रूप में होता था 1 वह १" यथेह दासाः वाहनादिव्यापारं कुर्वन्ति तथा तत्राऽऽभियोग्याः वाहनादि - भावेोपकुर्वन्ति । किल्विषं पापं तदेषामस्तीति किल्विषिकाः तेंऽत्यवासिस्थानीया मता: " - ( त० रा० अ० ४, सू० ४ पृ० १५१ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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