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________________ तीर्थकर [ ३. इन्द्रमहाराज पुनः चिन्तानिमग्न होकर विचार करते हैंदेव-दानवचस्य स्वपराक्रमशालिनः । कथंचित्प्रतिकूलस्य यः समर्थः कदर्थने ॥१२४॥ इन्द्रः पुरंदरः शक्रः कथं न गणितोऽधुना । सोऽहं कंपयतानेन सिंहासनमकंपनम् ॥१२५॥ अपने पराक्रम से शोभायमान भी देव-दानव समुदाय के किचित् प्रतिकूल होने पर जो उनके दमन करने की सामर्थ्य धारण करता है, ऐसे शक्र, पुरंदर, इन्द्र नामधारी मेरे अकंपित सिंहासन को कंपित करते हुए उसने मेरी कुछ भी गणना नहीं की। सहसा सौधर्मेन्द्र के चित्त में एक बात उत्पन्न हुई, कि तीनों लोकों में ऐसा प्रभाव तीर्थंकर भगवान के सिवाय अन्य में सम्भावनीय नहीं है----"संभावयामि नेदृक्षं प्रभावं भुवनत्रये । प्रभुं तीर्थंकरादन्यम् ।” पश्चात् अवधिज्ञान द्वारा ज्ञात हो गया कि भरतक्षेत्र में महाराज नाभिराज के यहाँ ऋषभनाथ तीर्थंकर का जन्म हुआ है । तत्काल ही वहं विस्मयभाव महान् आनन्दरस में परिणत हो गया । “जयतां जिन इत्युक्त्वा प्रणनाम कृतांजलिः" (१२८ सर्ग ८)--जिनेन्द्र भगवान जयवंत हों। ऐसा कहकर सात पैंड जा हाथ जोड़कर सौधर्मेन्द्र ने जिनेन्द्र भगवान को परोक्षरूप से प्रणाम किया। जन्मपुरी को प्रस्थान शीघ्र ही तीन लोक के स्वामी तीर्थकर का जन्म जानकर देवों की हाथी, घोड़ा, रथ, गन्धर्व, पियादे, बैल तथा नृत्यकारिणी रूप सात प्रकार की सैन्य इन्द्र महाराज की आज्ञा से निकलीं। उस समय शोक, विषाद आदि विकारों का सर्वत्र प्रभाव हो गया था। सर्व जगत् आनन्द के सिन्धु में निमग्न था । शान्ति का सागर दिग्दिगन्त में लहरा रहा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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