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________________ [ २७ उपरोक्त स्वप्नदर्शन के पश्चात् तीर्थंकर होने वाली आत्मा माता के गर्भ में आ गई । तीर्थंकर गर्भावतरण उस समय समस्त सुरेन्द्र गर्भावतरण की बात विविध निमित्तों से जानकर अयोध्यापुरी में आए । सब देवेन्द्रों तथा देवों ने उस पुण्य नगरी की प्रदक्षिणा की और महाराज नाभिराज तथा माता मरुदेवी को नमस्कार किया । बड़े हर्ष से गर्भकल्याणक का महोत्सव मनाया गया । भगवान के मनुष्यायु का उदय है ही । माता के गर्भ में आने से उनके मनुष्यायु के उदय में कोई अन्तर नहीं पड़ता । गर्भ तथा जन्म में तुलना तत्वदृष्टि से गर्भ में आना तथा गर्भ से बाहर जन्म लेने में कोई अन्तर नहीं है । इस अपेक्षा से गर्भकल्याणक और जन्मकल्याणक में अधिक भेद नहीं दिखता । अन्तर इतना ही है कि जन्म लेने पर उन प्रभु का चर्म चक्षुओं से दर्शन का सौभाग्य सबको प्राप्त होता है । भगवान का सद्भाव माता के उदर के भीतर गर्भकल्याणक में हो जाता है । इसी कारण उनका प्रभाव अद्भुत रूप से दिखने लगता है । प्रभु का प्रभाव उनके प्रभाव से माता की बुद्धि विशुद्ध हो जाती है और वह परिचारिका देवियों द्वारा पूछे गए प्रत्यन्त कठिन मार्मिक तथा गूढ़ प्रश्नों का सुन्दर समाधान करती हैं । भगवान स्वर्ग छोड़कर प्रयोध्या में आए हैं, किन्तु उनकी सेवा में तत्पर देव - देवी समुदाय को देखकर ऐसा लगता है कि स्वयं स्वर्ग ही उन प्रभु के पीछे-पीछे वहाँ आ गया है । देवताओं का चित्त स्वर्ग वापिस जाने का नहीं होता था, कारण जो निधि जिनेन्द्र भगवान के रूप में अब अयोध्या में आ गई है, वह अन्यत्र नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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