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तीर्थकर
बंध को छोड़कर अन्य आयु का बंध करनेवाला फिर व्रतों को स्वीकार नहीं कर सकता । इसी कारण तम व्रत धारण नहीं कर सकते । हे महाभाग ! अाज्ञा, मार्ग, बीज आदि दस प्रकार की श्रद्धाओं में से अाज तुम्हारे कितनी ही श्रद्धाएं विद्यमान हैं । इनके सिवाय दर्शनविशुद्धि प्रादि शास्त्रों में कहे हुए जो सोलह कारण हैं, उनमें से सब या कुछ कारणों से यह भव्यजीव तीर्थंकर नाम कर्म का बंध करता है। इनमें से दर्शनविशद्धि आदि कितने ही कारणों से त तीर्थकर नामकर्म का बंध करेगा। मर कर रत्नप्रभा नरक में जायगा और वहाँ से आकर उत्सर्पिणी काल में महापद्म नामक प्रथम तीर्थंकर होगा । ग्रन्थकार के शब्द इस प्रकार हैं
एतास्वपि महाभाग तव संत्यद्य कारचन । दर्शनाद्यागमप्रोक्त-शुद्ध-षोडशकारणः ॥४५०॥--७४॥ भव्यो व्यस्तैः समरतश्च नामात्मीकुरुतेंतिमम् । तेषु श्रद्धादिभिः कश्चिद् तन्नामकारणः॥४५१॥ रत्नप्रभां प्रविष्टः संग्तत्फलं मध्यमायुषा । भुक्त्वा निर्गत्य भव्यास्मिन् महापद्मास्य-तीर्थकृत ॥४५२॥
इस विषय में तत्वार्थ-श्लोकवार्तिकालंकार का यह कथन ध्यान देने योग्य है । विद्यानंदि-स्वामी कहते हैं
इग्विशुध्यादयो नाम्नस्तीर्थकृत्वस्य हेतवः । समस्ता व्यस्तरूपा वाग्विशुध्या समन्विताः ॥पृष्ठ ४५६-पद्य १७॥
दर्शनविशुद्धि आदि तीर्थंकर नाम कर्म के कारण हैं, चाहे वे सभी कारण हों या पृथक्-पृथक् हों किन्तु उनको दर्शन विशुद्धि समन्वित होना चाहिये । वे इसके पश्चात् तीर्थंकर प्रकृति के विषय में बड़े गौरवपूर्ण शब्द कहते हैं
सर्वातिशायि तत्पुण्यं त्रैलोक्यापितिधत्वकृत् ॥१८॥
वह पुण्य तीन लोक का अधिपति बनाता है । वह पुण्य सर्वश्रेष्ठ है।
दर्शनविशुद्धि आदि भावनाएं पृथक् रूप में तथा समुदाय
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