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तीर्थंकर
[ ७ माणुसस्स लोगस्स अच्चणिज्जा वंदणिज्जा णमंसणिज्जा धम्मतित्थयरा जिणा केवली (केवलिणो) भवंति ।
तीर्थंकर प्रकृति के बंधक
जिस तीर्थंकर प्रकृति के उदय से देव, असुर तथा मानवादि द्वारा वन्दनीय तीर्थंकर की पदवी प्राप्त होती है, उस कर्म का बंध तीनों प्रकार के सम्यक्त्वी करते हैं । सम्यक्त्व के होने पर ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है । किन्हीं प्राचार्य का कथन है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व का काल अंतर्मुहूर्त प्रमाण अल्प है । उसमें सोलह भावनाओं का सद्भाव सम्भव नहीं है । अतः उसमें तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होगा।
यह भी बात स्मरण योग्य है, कि इसका बंध मनुष्यगति में ही केवली अथवा श्रुतकेवली के चरणों के समीप प्रारम्भ होता है । तित्थयरबंध-पारंभया णरा केवली-दुगते । (६३ गो० कर्मकाँड) इस प्रकृति का बंध तिर्यच गति को छोड़ शेष तीन गतियों में होता है । इसका उत्कृष्टपने से अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष न्यून दो कोटि पूर्व अधिक तेतीस सागर प्रमाण काल पर्यन्त बन्ध होता है । केवली श्रुतकेवली का सानिध्य आवश्यक कहा है, क्योंकि तदन्यत्र तादृग्विशुद्धिविशेषासंभवात्" उनके सानिध्य के सिवाय वैसी विशुद्धता का अन्यत्र अभाव है।
नरक की प्रथम पृथ्वी में तीर्थंकर प्रकृति का बंध पर्याप्त तथा अपर्याप्त अवस्था में होता है। दूसरी तथा तीसरी पृथ्वी में इस प्रकृति का बंध अपयप्ति काल में नहीं होता है । कहा भी है___ घम्मे तित्थं बंधति वंसामेघाटण पुष्णगो चेव ॥१०६॥गो० कर्म०
गोम्मटसार कर्मकाँड गाथा ३६ में लिखा है कि तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध अविरत सम्यक्त्वी के होता है । “तित्थयरं च मणुस्सो अविरदसम्मो समज्जेई"। इसकी संस्कृत टीका में लिखा है : "तीर्थंकरं उत्कृष्ट-स्थितिकं नरकगति-गमनाभिमुख-मनुष्यासंयत
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