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________________ तीर्थकर जब जगत् म अन्धकार का अखण्ड साम्राज्य छा जाता है, तब नेत्रों की शक्ति कुछ कार्य नहीं कर पाती है । अन्धकार, नेत्रयुक्त मानव को भी अन्ध सदृश बना देता है। इस पौद्गलिक अन्धकार से गहरी अंधियारी मिथ्यात्व के उदय से प्राप्त होती है। उसके कारण यह ज्ञानवान् जीव अपने स्वरूप को नहीं जान पाता है। मोहनीय कर्म के आदेशानुसार यह निन्दनीय कार्य करता फिरता है । जड़ शरीर में यह मिथ्यात्वांध व्यक्ति आत्म-बुद्धि धारण करता है । जब इसे कोई सत्पुरुष समझाते हैं कि तुम चैतन्यपुञ्ज ज्ञायक स्वभाव आत्मा हो, शरीर का तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं है, तो यह अविवेकी उस वाणी को विष समान समझता है । धर्म-सूर्य सूर्योदय होते ही अन्धकार का क्षय होता है, उसी प्रकार तीर्थंकर रूपी धर्म-सूर्य के उदय होते ही जगत् में प्रवर्धमान मिथ्यात्व का अन्धकार भी अंतःकरण से दूर होकर प्राणी में निजस्वरूप का अवबोध होने लगता है। किन्हीं की मान्यता है कि शुद्ध अवस्था प्राप्त परमात्मा मानवादि पर्यायों में अवतार धारण करता है। जिस प्रकार बीज के दग्ध होने पर वृक्ष उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार राग-द्वेष, मोह आदि विकारों के बीज के आत्म-समाधि रूप अग्नि से नष्ट होने पर परम पद को प्राप्त आत्मा का राग-द्वेष पूर्ण दुनियाँ में पुनः पाना है । सर्वदोषमुक्त जीव द्वारा मोहमयी प्रदर्शन उचित नहीं कहा जायगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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