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________________ ( २८ ) ज्ञातृपुत्र ( महावीर ) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं, वे प्रशेष ज्ञान और दर्शन के ज्ञाता हैं । हमारे चलते ठहरते, सोते जागते समस्त अवस्थाओं में सदैव उनका ज्ञान और दर्शन उपस्थित रहता है । उन्होंने कहा है - निर्ग्रन्थों ! तुमने पूर्व (जन्म) में पाप कर्म किए हैं, उनकी इस घोर दुश्चर तपरया से निर्जरा कर डालो | मन, वचन और काय की संवृत्ति से ( नये) पाप नहीं बंध और तपस्या से पुराने पापों का क्षय हो जाता है । इस प्रकार नये पापों के रुक जाने से कर्मों का क्षय होता है, कर्मक्षय से दुःखक्षय होता है | दुःखक्षय से वेदनाक्षय और वेदनाक्षय से सर्व दुःखों की निर्जरा हो जाती है ।" इस पर बुद्ध कहते हैं कि "यह कथन हमारे लिए रुचिकर है और हमारे मन को ठीक जंचता है ।" पाली रचना में प्रागत बुद्धदेव के ये शब्द विशेष ध्यान देने योग्य हैं, "तं च पन् ग्रम्हाकं रुच्चति चेव खमति च तेन च अम्हा अत्तमना ति" ( मज्झिमनिकाय, P. T. S . P . ६२-६३ ) | महावीर भगवान की सर्वज्ञता के प्रति बुद्धदेव की रुचि का भाव मनोवैज्ञानिक तथ्य विशेष पर आश्रित है, कारण राजा मिलिन्द के प्रश्न का उत्तर देते हुए बौद्ध भिक्षु नागसेन ने कहा है, "बुद्ध का ज्ञान सदा नहीं रहता था । जिस समय बुद्ध किसी बात का विचार करते थे, तब उस पदार्थ की ओर मनोवृत्ति जाने से उसे वे जान लेते थे ।" ( १ ) अतः सर्वकाल विद्यमान रहने वाले तीर्थंकर महावीर की सर्वज्ञता के प्रति उनकी स्पृहापूर्ण ममता स्वाभाविक है । सर्वज्ञ होने के कारण इन तीर्थकरों ने तत्व का सर्वांगीण बोध प्राप्तकर जीवों के हितार्थ जो मंगलमयी देशना दी, वह अलौकिक एवं मार्मिक है । इस पुस्तक के लेखन में पूज्य १०८ आदिसागरजी दि० मुनिराज (दक्षिण) का आरा से मुद्रित लघुकाय ट्रेक्ट “त्रिकालवर्ती महापुरुष" मूल कारण है । सन् १९५८ में उक्त मुनि महाराज का सिवनी में चातुर्मास हुआ था । संशोधन हेतु उक्त मुनि महाराज ने अपना ट्रेक्ट हमें दिया । उस रचना की अपूर्णता 1 ---: Venerable Nagasena, was the Buddha Omniscient ? Yes, O King, he was. But the insight of knowledge was not always and continously present with him. The Omniscience of the Blessed One was dependent on reflection. But if he did reflect, he knew whatever he wanted to know... ( Sacred books of the East, Vol. XXXV P. 154-"Milinda-Panha") Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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