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तीर्थकर
[ ३०९ इस सिद्धगति की कामना करते हुए मूलाचार में कहा है :
जा गदी अरहंताणं णिट्टिदट्ठाणं च जा गदी। जा गदी पीतमोहाणं सा मे भवदु सस्सदा ॥११६॥
जो गति अरिहंतों की है, जो गति कृतकृत्य सिद्धों की है, जो गति वीतमोह मुनीन्द्रों की है, वह मुझे सदा प्राप्त हो ।
मुक्ति का उपाय
___ इस मुक्ति की प्राप्ति का यथार्थ उपाय जिनेन्द्र वीतराग के धर्म की शरण ग्रहण करना है । जैन प्रार्थना का यह वाक्य महत्वपूर्ण है :--"चत्तारि सरणं पव्वज्जामि । अरहंतसरणं पव्वज्जामि । सिद्धसरणं पव्वज्जामि । साहूसरणं पव्वज्जामि । केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि"-मैं चार की शरण में जाता हूँ; अरहंतों की शरण में जाता हूँ। सिद्धों की शरण में जाता हूँ। साधुओं की शरण में जाता हूँ। केवली प्रणीत धर्म की शरण में जाता हूँ। यहां धर्म का विशेषण 'केवलिपण्णत्तो' अर्थात् सर्वज्ञ भगवान द्वारा कथित महत्वपूर्ण है। संसार के चक्र में फंसे हुए संप्रदायों के प्रवर्तकों से यथार्थ धर्म की देशना नहीं प्राप्त होती है ।
मार्मिक कथन
इस प्रसंग में विद्यावारिधि स्व० चंपतरायजी बार-एट-ला का कथन चिंतन पूर्ण है :
यथार्थ में जैनधर्म के अवलंबन से निर्वाण प्राप्त होता है । यदि अन्य साधना के मार्गों से निर्वाण मिलता, तो वे मुक्तात्मानों के विषय में भी जैनियों के समान स्थान, नाम, समय आदि जीवन की बातें उपस्थित करते । “No other religion is in a position to furnish a list of men, who have attained to Godhood by following its teachings.” ( Change of Heart, page 21 )-जैन धर्म के सिवाय कोई भी धर्म उन लोगों की
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