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________________ २९२ ] तीर्थंकर दिगम्बर मुद्रा की लालसा रखता है, वह श्रावक मार्गस्थ है । धीरे-धीरे वह अपनी प्रिय पदवी को प्राप्त कर सकेगा, किन्तु जो वस्त्र-त्यागादि को व्यर्थ सोचते हैं, वे सकलंक श्रद्धा वश अकलंक पदवी को स्वप्न में भी नहीं प्राप्त कर सकते हैं। गंभीर विचारवाला अनुभवी सत्पुरुष पूर्वोक्त बात का महत्व शीघ्र समझेगा । ___ मूलाराधना में कहा है, भृकुटी चढ़ाना आदि चिन्हों से जैसे अंतरंग में क्रोधादि विकारों का सद्भाव सूचित होता है, इसी प्रकार वाह्य अचेलता (वस्त्र त्याग ) से अंतर्मल दूर होते हैं। कहा भी है :-- बाहिरकरणविसुद्धी अभंतकरण-सोधणत्थाए । ण हु कंडयस्स सोधो सक्का सतुसस्स काढुंजे ॥१३४८॥ बाह्य तप द्वारा अंतरंग में विशुद्धता आती है तथा जो धान्य सतुष है, उसका अंतर्मल नष्ट नहीं होता है । तुषशून्य धान्य ही शुद्ध किया जाता है। इस धान्य के उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि अंतरंग मल दूर करने के पूर्व बाह्य स्थूल परिग्रह रूप मलिनता का त्याग अत्यन्त आवश्यक है। कोई कोई लोग सोचते हैं, अंतरंग पवित्रता पहले आती है, पश्चात् परिग्रह का त्याग होता है। यह भ्रमपूर्ण दृष्टि है। वस्त्रादि त्याग के उपरान्त परिणाम अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त होते हैं । वस्त्रादि सामग्री समलंकृत शरीर के रहते हुए देशसंयम गुणस्थान से प्रागे परिणाम नहीं जा सकते हैं। यह बात भी ध्यान देने योग्य है, कि ऐसे कृत्रिम नग्न मुद्राधारी भी व्यक्ति रहते हैं, जिन्होंने बाह्य परिग्रह का तो त्याग कर दिया है, किन्तु जिनका मन स्वच्छ नहीं है, उस उच्चपदवी के अनुकूल नहीं है। इसके सिवाय यह भी विषय नहीं भुलाना चाहिए कि जिसकी प्रांतरिक शुद्धि है, उसके पहले बाह्य परिग्रह रूप विकृति दूर होनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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