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________________ तीर्थकर [ २८९ आकाश के समान अमूर्त, पौद्गलिक आकार रहित, परिपूर्ण, शांत, अविनाशी, चरम देहसे किंचित् न्यून, घनाकार आत्म प्रदेशों से युक्त, लोकाग्रके शिखर पर अवस्थित, कल्याणमय, स्वस्थ, स्पर्शादिगुण रहित तथा पुरुषाकार परमात्मा का चितवन रूपातीत ध्यान में करे । ध्यान के लिए मार्ग-दर्शन ध्यान के अभ्यासी के हितार्थ प्राचार्य शुभचंद ने ज्ञानार्णव में यह महत्व पूर्ण मार्गदर्शन किया है :-- अनुप्रेक्षाश्च धर्म्यस्य स्युः सदैव निबंधनम् । चित्तभूमौ स्थिरीकृत्य स्व-स्वरूपं निरूपय ॥४१--३॥ हे साधु ! अनुप्रेक्षाओं का चितवन सदा धर्मध्यान का कारण है, अतएव अपनी मनोभूमि में द्वादश भावनाओं को स्थिर करे तथा आत्म स्वरूप का दर्शन करे ।। ब्रह्मदेव सूरि का यह अनुभव भी आत्म-ध्यान के प्रेमियों के ध्यान देने योग्य है, "यद्यपि प्राथमिकानां सविकल्पावस्थायां चित्तस्थितिकरणार्थं विषय-कषायरूप-दुानवंचनार्थं च जिनप्रतिमाक्षरादिकं ध्येयं भवतीति, तथापि निश्चय-ध्यानकाले स्वशुद्धात्मैव इति भावार्थः" (परमात्मप्रकाश टीका पृष्ठ ३०२, पद्य २८६)-यद्यपि सविकल्प अवस्था में प्रारंभिक श्रेणी वालों के चित्त को स्थिर करने के लिए तथा विषय-कषाय रूप दुर्ध्यान अर्थात् प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान दूर करने के लिए जिन प्रतिमा तथा जिन वाचक अक्षरादिक भी भ्यान के योग्य हैं, तथापि निश्चय ध्यान के समय शुद्ध प्रात्मा ही ध्येय है। जिनेन्द्र भगवान की मूर्ति के निमित्त से आत्मा का रागभाव मन्द होता है, परिणाम निर्मल होते हैं तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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