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तीर्थंकर
[ २८१ का अर्थ यह है कि प्रात्मा से उनका सम्बन्ध छट जाता है तथा वे पुनः रागादि विकार उत्पन्न नहीं करने । यहाँ अभिप्राय यह है कि पुद्गल ने कर्मत्व पर्याय का त्याग कर दिया है । वह अकर्म पर्यायरूप में विद्यमान है। अन्य कषायवान् जीव उसे योग्य बनने पर पुनः कर्मपर्याय परिणत कर सकता है । मुक्त होने वाली प्रात्मा के साथ उस पुद्गल का अब कभी भी पुनः बन्ध नहीं होगा । कर्मक्षय का इतना ही मर्यादापूर्ण अर्थ करना उचित है।
निर्वाण-भूमि का महत्व
आत्म निर्मलता सम्पादन में सिद्ध-भूमि का आश्रय ग्रहण करना भी उपयोगी मावा गया है । निर्वाण-स्वामी (मुनि) सल्लेखना के हेतु निर्वाण-स्थल में निवास को अपने लिए हितकारी अनुभव करते हैं । क्षपकराज, चारित्रचक्रवर्ती १०८ आचार्य शांतिसागर महाराज नेयात्म-विशुद्धता के हेतु ही कुंथलगिरि रूप निर्वाणभूमि को अपनी अन्तिम तपोभूमि बनाया था ।
प्राचार्य शांतिसागर महाराज का अनुभव
___ प्राचार्य महाराज की पहले इच्छा थी, कि वे पावापुरी जाकर सल्लेखना को स्वीकार करें। उन्होंने कहा था-"हमारी इच्छा पावापुरी में सल्लेखना लेने की है । वहाँ जाते हुए यदि मार्ग में ही हमारा शरीरान्त हो जाय, तो हमारे शरीर को जहां हमारे पिता हैं, वहां पहुँचा देना।"
मैंने पूछा था :- महाराज ! पिता से आपका क्या अभिप्राय
उत्तर---"महावीर भगवान हमारे पिता हैं।"
मेरे भाई प्रोफेसर सुशीलकुमार दिवाकरने प्रश्न कियातब तो जिनकाणी आपकी माता हुई ?
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